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पंचम खंड | ५४
विलय कराके साक्षात् परम-मोक्ष का देने वाला है।
शुक्लध्यान के चार प्रकारों में से प्रारम्भ के दो प्रकार श्रुत, शब्द और अर्थ तथा योगमन, वचन, काय के व्यापार का पालम्बन करते हैं । यानी प्रथम के दो प्रकार सालम्बन हैं और अन्त के दो प्रकार निरालम्बन हैं। अर्थात् प्रथम प्रकार सवितर्क और सविचार है । वितर्क नाम श्रुत का है और विचार शब्द, अर्थ और योग के संक्रमण परिवर्तन को कहते हैं। दूसरा प्रकार सवितर्क और अविचार है । इसमें श्रुत की एक ही अर्थ की एक ही पर्याय का एक योग द्वारा ध्यान होता है । ये दो प्रकार ८ गुणस्थान से १२वें गुण स्थान तक होते हैं तथा तीसरा प्रकार १३वे गुणस्थान में और चौथा प्रकार चौदहवें गुणस्थान में होता है।
शब्द, अर्थ और योग का संक्रमण-शब्द, अर्थ और योग का आश्रय लेकर जिनेश्वरों ने तीन प्रकार का संक्रमण बतलाया है। एक शब्द की आलोचना करके दूसरे शब्द की ओर बढ़ना, शब्द-संक्रमण है। इसी प्रकार एक योग का आश्रय लेकर फिर दूसरे योग में प्रवेश करना योग का संक्रमण है और एक अर्थ का विचार करके दूसरे अर्थ की ओर जाना अर्थ-संक्रमण है। यानी शब्द-संक्रमण, योग-संक्रमण तथा अर्थ-संक्रमण यह तीन प्रकार के संक्रमण हैं। शुक्लध्यान के प्रकार में जो सविचार शब्द आता है, उसमें विचार शब्द उक्त संक्रमण के अर्थ में व्यवहार किया गया है। सविचार यानी संक्रमण-सहित यह अर्थ होता है ।३०
शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार-शुक्लध्यानी की जिस अवस्था में तीन योगों में से एक ही योग होता है, उस समय बहुत्व के प्रभाव से संक्रमण नहीं होता, इसलिए उस समय अविचार नामक शुक्लध्यान का दूसरा प्रकार संभव हो सकता है । इस अवस्था में मोहनीयकर्म का सर्वथा उच्छेद होने पर चारों घातिकर्मों का विलय हो जाता है और चौतीस प्रतिशयों के साथ निर्मल केवलज्ञान प्रकट होता है ।
वीतराग को केवलज्ञान प्राप्त होने पर अपना निज का कल्याण तो हमा, परन्तु जिनतीर्थकर नामकर्म के उदय और अनन्त भावदया के प्रवाह से जगत् का कल्याण करने की ओर अपने आप ही उनकी वृत्ति हो जाती है। इसलिए केवली भगवान् सत्य तत्त्वरूपी अमृत की वर्षा करके इस पृथ्वी को परम शीतल बना कर जगत् को मुक्ति का मार्ग दिखलाकर जगत्-सेवा करते हैं ।
शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार-जिस अवस्था में केवली भगवान् अन्त समय में स्थूल काययोग में रहकर वचनयोग और मनोयोग को सूक्ष्म बना लेते हैं और मन-वचन-योग में रहकर स्थूल काययोग को सूक्ष्म बना लेते हैं और उसमें रहकर भी मन-वचन-योग को रोकते हैं, उस समय केवल सूक्ष्म काय-योग की सूक्ष्म-क्रिया रहती है। इससे सूक्ष्म क्रिया नामक शुक्लध्यान का तीसरा प्रकार निष्पन्न होता है।
२९. क० को० ५८३।२११ ३०. क० को० ५८६।२१२-२१३ ३१. क. को० ५८९।२१४
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