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तूफानों से टक्कर लेने वाला आस्था का दीपक
वह धर्मात्मा कहलाने का अधिकारी है। धात्मा की कोई जाति नहीं होती। आत्मिक गुणों पर भी किसी जाति, सम्प्रदाय, मत अथवा पंथ की ठेकेदारी नहीं हो सकती। केवल सत्कर्म हो मानव जीवन को उच्च बनाते हैं तथा सद्गति प्राप्त कराते हैं।
पाश्चात्य विद्वान् विक्टर ह्यूगो ने भी सुन्दर बात कही है
"God actions are the invisible hings of the door of heaven."
---शुभ कर्म स्वर्ग के दरवाजे का अदृश्य कब्जा है ।
आत्मा रहित कलेवर निरर्थक हैं
"
अधिकांश व्यक्ति पंच मत धथवा सम्प्रदायों को हो धर्म मान लेते हैं जबकि ये सब बाह्य कलेवर हैं । धर्म तो आत्मिक गुण है और वह आत्मा के साथ ही रहता है । प्रावश्यकता होती है उसे प्रकाशित करने की जिसे आस्था का दीप आलोकित करता है। धर्म जहाँ उत्तम गुणों में बसा हुआ होता है तथा चारित्र को महत्त्व प्रदान करता है, वहीं सम्प्रदाय गुणों की वृद्धि तथा चारित्रिक विकास की उपेक्षा करते हुए केवल विधि-विधानों को ही पकड़े रहता है । धर्म मनुष्य को नम्र बनाता है, किन्तु पंथ उसे मिथ्याभिमानी बना देता है । धर्म जहाँ मनुष्यों के बीच में खड़ी हुई भेद की दीवारों को गिराकर प्रभेदभाव की ओर ले जाता है, वहाँ सम्प्रदाय नई दीवारों का निर्माण करता है। धर्म मानव को अनेक बंधनों से मुक्त करता है। किन्तु सम्प्रदाय अनेक प्रकार के प्रतिबंध लगाकर उसे भूल भुलैया में फँसा देता है। शुद्ध धर्म किसी मत, सम्प्रदाय या पंथ की मालिकी न होकर वायु एवं आकाश के समान सर्वव्यापी होता है जो किसी भी व्यक्ति के लिये सुलभ होता है, चाहे वह किसी भी जाति या कुल में उत्पन्न क्यों न हो ! इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु को धर्म रूपी श्रात्मा से रहित मात्र कलेवर या खोल रूपी पंथ या सम्प्रदाय को पकड़े नहीं रहना चाहिये; अन्यथा वह धर्म के दर्शन भी करने में असमर्थ रहेगा ।
बाह्य क्रियाकांड और चोटी, जनेऊ, तिलक छापे आदि चिह्न धर्म नहीं होते, मात्र प्रतीक कहे जा सकते हैं । अतः न जनेऊ हटाने से धर्म नष्ट होता है और न ही हरिजन के हाथ का पानी पी लेने से । धर्म तभी मरता है जब मनुष्य के मन में से प्रेम, सहानुभूति, करुणा, सत्य, अहिंसा तथा न्याय-नीति आदि का लोप हो जाता है। इसलिये ग्रात्मशान्ति के इच्छुक को सच्चे धर्म का स्वरूप समझकर दृढ़ आस्था के साथ उसका पालन करना चाहिये ।
आप मेरी कही हुई बात भूले नहीं होंगे कि धर्म के मर्म को समझने के लिये ज्ञान प्राप्त करना अति उपयोगी एवं सहायक है जिससे जिससे मनुष्य वीतराग प्रभु की वाणी पर ग्रास्था रखता हुआ सद्गुणों को जीवन व्यवहार में उतारे। किन्तु शर्त यही है कि बह विद्वत्ता का
समाहिकामे समणे तवस्सी
जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपसरी है
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