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________________ • अ + जा च न . तृतीय खण्ड . बुद्ध के सत्य वचन सुनकर राजगृह के श्रेष्ठियों के मस्तक झुक गए। बंधुप्रो ! आप इस उदाहरण से भली-भाँति समझ गए होंगे कि सम्पूर्ण धर्म-क्रियाओं के पीछे रही हई भावना ही सच्ची कसौटी होती है जो धर्म के नाम पर किये जाने वाले मनुष्य के कार्यों को खरा या खोटा साबित करती है । जैनदर्शन कहता है "आत्मशुद्धि-साधनं धर्मः।" अर्थात्-जिन प्रवृत्तियों और कार्यों से आत्मा की शुद्धि हो, दोषों का नाश हो, वही धर्म है। भर्तृहरि ने भी अपने 'नीतिशतक' में धर्म के लक्षण बताते हुए मोक्षाभिलाषी व्यक्तियों को प्रात्मा के लिये अनिवार्य रूप से श्रेयस्कर मार्ग का निर्देश किया है: "प्राणघातानिवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यम् । काले शक्त्या प्रदानं, युवतिजन-कथा मूकभावः परेषाम् ॥ तृष्णास्रोतो विभंगो, गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा । सामान्यं सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः ॥" अर्थात्-प्राणघात से विरति, परधन हरण करने पर संयम, सत्य भाषण, यथासमय यथाशक्ति दान देना, परस्त्रियों की कामकथा के विषय में मौन रहना, तृष्णा के स्रोत को रोकना, गुरुजनों का विनय करना, समस्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा रखना, समस्त धर्मशास्त्रों में विहित सामान्य धर्म के विधान से भ्रष्ट न होना हो श्रेयस्कर पंथ है। क .24. _/04.2 . मनुस्मृति में भी धर्म के दस लक्षण इस प्रकार बताए गए हैं: धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीविद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म-लक्षणम् ॥ -धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य एवं प्रक्रोध ये धर्म के दस चिह्न हैं। - इस प्रकार हम देखते हैं कि विभिन्न धर्मग्रन्थ भी हृदय की निर्मलता, पवित्रता तथा विशालता को ही धर्म मानते हैं, किसी सम्प्रदाय अथवा पंथविशेष की क्रियाओं को नहीं। धर्म के उपर्युक्त सभी लक्षण मनुष्य के अन्तर्मानस में निहित होते हैं जिन्हें बाह्याचार में लाया जाता है। भले ही कोई व्यक्ति जैनकुलोत्पन्न होने से स्वयं को सम्यकत्वधारी या औरों से ऊँचा समझने लगे, पर अगर उसमें सम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा तथा आस्था प्रादि पांच लक्षण न हों तो वह भूल में रहेगा। इसके विपरीत अगर ये पाँच लक्षण तथा धर्म के बताए हुए गुण ब्राह्मण, राजपूत, मुसलमान अथवा शूद्र माने जानेवाले व्यक्ति में पाए जाते हों तो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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