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________________ मसीही योग | २१५ मसीही धर्म में नियम यम की तरह ही नियम के पांच भेद माने जाते हैं—(१) शौच, (२) सन्तोष, (३) तप, स्वाध्याय और (५) ईश्वर प्रणिधाना नियम बाह्य और प्रान्तरिक दोनों हैं। इन नियमों का पालन करने से आत्मा शुद्ध होती है और मनुष्य ईश्वर की ओर बढ़ता है । शौच मसीहीधर्म में शौच दो प्रकार का है-बाह्य और प्रान्तरिक । यद्यपि बाह्य शौच पर इतना ध्यान नहीं दिया जाता है किन्तु पवित्रशास्त्र में बहुलता से सामग्री उपलब्ध है कि किस प्रकार से इब्रानी और यहदी बाह्य शौच क्रिया पर विचार करते थे। मृतक मनुष्य को स्पर्श करने से जो अशुद्धता होती है उसका विवरण और निवारण का उपाय 'गिनती की पुस्तक' १९:७ में बताया गया है। यशय्याह नबी लिखता है कि कोई अशुद्ध वस्तु मत छुमो (यशय्याह ५२:११) पौलुस लिखता है कि कोई वस्तु को मत छुनो तो मैं तुम्हें ग्रहण करूगा" (२ करिन्थियों ६:१७) मूसा की व्यवस्था के अनुसार कई काम और दशा अशुद्ध समझी जाती थी और फिर शुद्ध होने के लिए कोई रीति पूरी करनी पड़ती या भेंट चढ़ानी पड़ती थी। प्रसूता के समय (लैव्यव्यवस्था १२); कोढ़ (लैव्य १३:१४), प्रमेह (लैव्य १५), मुर्दे से छू जाना (गिनती १९:११-२२, ३१), किसी मृतक पशु से छू जाना (लैव्य ११:३९-४०, १७:१५-१६, २२-८) अशुद्ध समझे जाते थे। जब अशुद्धता एकदम प्रकट हो जाती तब उससे शुद्ध होने के लिए हल्की और आसन रीति पूरी करनी पड़ती थी। (लैव्य ११:२४-२५, २८, ३९-४०% १५:५, ८, २१; गिनती १९:११-१२) किन्तु अशुद्धता प्रकट न हो और शूद्ध होने की रीति पाली न जाये तब पाप-बलिदान चढ़ाना पड़ता था। प्रशुद्धता की व्यवस्था में दो बातें थी-(१) मनुष्य के पाप की दशा और (२) जो प्राचीन जातियों में थी कि जो वस्तु अथवा मनुष्य परमेश्वर को अर्पण किया हुअा हो अगर वह किसी और चीज़ से छ ले तो वह वस्तु वा मनुष्य भी अर्पण किये हुए के समान हो जाता है और वह दूसरे काम के योग्य नहीं रहता। बाद में यहूदियों में शुद्धता के इतने नियम बन गये कि वे असली बातों और विचारों को भूल गये । हाथ-पैरों को धोना, कटोरों, लोटों और ताम्बे के बर्तनों को धोना-मांजना (मरकुस ७:३-४) पुरनियों की रीति थी। नये नियम में आन्तरिक शौच पर बल दिया गया है। 'प्रेरितों के काम' १०:१२ में पतरस अशुद्ध भोजन की बात कहता है किन्तु १५ वीं आयत में कहा गया है कि "जो कुछ परमेश्वर ने शुद्ध ठहराया है, उसे तू अशुद्ध मत कह ।' नये नियम का आधार बचन है और बचन में शक्ति है कि वह शुद्ध करें जैसाकि कहा गया है कि "तुम तो उस बचन के कारण जो मैंने तुम से कहा है, शुद्ध हो।” (यूहन्ना १५-३) नये नियम की शिक्षा बाह्य नहीं किन्तु प्रान्तरिक शौच पर बल देती है। पौलुस लिखता है'तुममें व्यभिचार और किसी प्रकार के अशुभ काम की चर्चा तक न हो।' (इफिसियो ५:३) शरीर को स्वच्छ रखने पर इतना बल नहीं दिया गया जितना कि मन की शुद्धता पर बल दिया गया है। । कहा गया है, "धन्य हैं जिनके मन शुद्ध हैं, क्योंकि वे परमेश्वर को देखेंगे" (मत्ती ५:८) "क्योंकि आसनस्थ तम भीतर से अर्थात् मनुष्य के मन से बुरी-बुरी चिन्ता, व्यभिचार, चोरी, हत्या, परस्त्री-गमन, आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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