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________________ पंचम खण्ड / २१६ . अर्चनार्चन लोभ, दुष्टता, छल, लुच्वापन, कुदृष्टि, निन्दा, अभिमान और मूर्खता निकलती है" (मरकुस ७:२१)। इसी कारण लिखा है, "अपने उन अंगों को मार डालो जो पृथ्वी पर हैं अर्थात् व्यभिचार, अशुद्धता, दुष्टकामना, बुरी लालसा और लोभ को जो मूत्तिपूजा के बराबर हैं।" मसीहीधर्म में मूत्तिपूजा का निषेध है और जो व्यक्ति आन्तरिक शौच पर ध्यान नहीं देता वह पवित्रशास्त्र के अनुसार मूत्तिपूजक है । बाह्य शौच का अपना महत्त्व स्वास्थ्य की दृष्टि से है परन्तु उससे बढ़कर आन्तरिक शोच है। प्रभु यीशुमसीही एक फरीसी को कहते हैं कि 'हे फरीसियो ! तुम कटोरे और थाली को ऊपर-ऊपर तो मांजते हो, परन्तु तुम्हारे भीतर अन्धेर और दुष्टता भरी है। हे निर्बुद्धियों, जिसने बाहर का भाग बनाया, क्या उसने भीतर का भाग नहीं बनाया ? परन्तु हाँ, भीतर वाली वस्तुओं को दान कर दो, तो देखो, सब तुम्हारे लिए शुद्ध हो जायेगा" (लका ११:३९-४१) पौलुस बाह्य और प्रान्तरिक शौच दोनों के प्रति सचेत था । वह करिन्थ की कलीसिया को लिखता है कि "क्या तुम नहीं जानते कि तुम्हारी देह मसीह के अंग है ? सो क्या मैं मसीह के अंग लेकर उन्हें वेश्या का अंग बनाऊँ ? कदापि नहीं।” (१ करिन्थियों ६:१५) मसीहधर्म में शरीर के कामों और आत्मा के कामों में अन्तर दिया गया है और इसी कारण मसीहयोग में आत्मा की शुद्धता पर बल दिया गया है जिसके कारण शरीर की लालसा समाप्त हो जाती है। अत: प्रान्तरिक शौच को नियम के रूप में पालन करना एक मसीही के लिए अनिवार्य है। संतोष नियम के अन्तर्गत दूसरा तथ्य संतोष है। कहा जाता है कि मनुष्य इच्छानों का पुंज हैं । एक इच्छा की पूर्ति होने पर दूसरी इच्छा जन्म ले लेती है। इस हेतु आवश्यक है कि हम अपनी इच्छानों पर नियंत्रण रखें। संतोष जीवन में वह तत्व है जो सत्य को जानने और उद्घाटित करने में सहायक होता है। कुछ लोग भक्ति का सहारा लेते हैं किन्तु मसीहीधर्म का शिक्षक पौलुस कहता है कि "संतोष सहित भक्ति बड़ी कमाई है क्योंकि न हम जगत में कुछ लाए हैं और न कुछ ले जा सकते हैं और यदि हमारे पास खाने और पहिनने को हो, तो इन्हीं पर संतोष करना चाहिए। पर जो धनी होना चाहते हैं, वे ऐसी परीक्षा और फंदे और बहुतेरे व्यर्थ और हानिकारक लालसानों में फंसते हैं, जो मनुष्य को बिगाड़ देती है और विनाश के समुद्र में डबा देती है" (१ तिमुथियुस ६:६-९) संतोष देह की साधना से प्राप्त नहीं होता है परन्तु संतोष भक्ति के द्वारा प्राप्त होता है। मसीहीधर्म की यह शिक्षा है कि किसी भी बात की चिन्ता मत करो (फिलिसियों ४-६) मत्ती (चित सुसमाचार में भी कहा गया है कि चिन्ता न करना कि क्या खायेंगे और क्या पीएंगे (मत्ती ६:२५) परन्तु संतोष रखने का अभ्यास करो। पौलुस तो इब्रानियों की पत्री में स्पष्ट कहता है कि "तुम्हारा स्वभाव लोभरहित हो और जो तुम्हारे पास है उसी पर संतोष करो" (इब्रानियो १३-५) मसीहीयोग में बढ़ने के लिए आवश्यक है कि संतोष पर ध्यान दे और जीवन में संतोष का अभ्यास करें। तप नियम के अन्तर्गत तीसरा तथ्य तप है। हिन्दूधर्म के अनुयायी तप करने के कोई माध्यम अपनाते हैं। कोई खड़ा रहता है, कोई कांटों पर सोता है, कोई हाथ सुखाता है, कोई अग्नि के बीच बैठता है अर्थात वे नाना प्रकार की तप की क्रियाओं को करते हैं किन्तु मसीहीधर्म में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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