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________________ अर्चनार्चन Jain Education International जैनदर्शन और योगसाधना कमला माताजी, इन्दौर इन दोनों में दुग्ध और जल जैसा संयोग कह लें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी । जैनदर्शन में योगसाधना पर इतना बल क्यों दिया जाता है ? सत्य है, मात्मा के साथ तीनों योगों का मिश्रण जल के समान है। जब तक योगों का निरुधन नहीं होगा तब तक आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को न पा सकेगी । - वर्तमान में योगाभ्यास विपश्यना आदि साधनाओं के लिए शिविर आदि का आयोजन किया जाता है । सभी साधकों का व मार्गदर्शकों का एक ही लक्ष्य है कि हम शान्ति को प्राप्त करें और इसलिए ध्यान आदि क्रियाएँ की जाती है करवाई जाती हैं। कुछ समय के लिए काययोग अभ्यास के द्वारा स्थिर हो गया और उसके साथ ही वचन - योग तो स्थिर हो ही जाता है। लेकिन मनोयोग को रोकना इतना आसान नहीं है। इसकी गति बहुत तीव्र होती है। यह सहज में वश में नहीं किया जाता । उत्तराध्ययनसूत्र के २३ वे अध्ययन में केशीस्वामी श्रमण ने भ. गौतम से अपनी प्रश्नपृच्छा के दौरान यह प्रश्न भी रक्खा - प्रश्न- मणी साहसिओ भीमो वुटुस्सो परिधावई । जंसि गोयम ! आरूढो, कहं तेण न हीरसि ॥ ५५ ॥ उत्तर- पधावन्तं निगिहामि सुपरस्सीसमाहियं । न मे गच्छइ उम्मग्गं, मग्गं च पडिवज्जई | ५६ ॥ कितना सुन्दर प्रत्युत्तर इधर-उधर दौड़ते हुए मन रूपी अश्व को सन्मार्ग पर लाने के लिए सतत सूत्र रूपी लगाम अपने हाथ में रक्खें। वह कैसे ? सुन्दर चिन्तन के द्वारा एगो मे सासओ अप्पा, नाणदंसण संजुओ । सेसा मे बाहिरा भावा, सव्वे संजोगलक्खणा ॥ एक शाश्वत आत्मा ही मेरा है जो ज्ञान- दर्शनमय है । श्रात्मा के सिवाय सभी भावपदार्थ मुझसे अलग हैं। संयोग से यह मेरे साथ जुड़ गए हैं— वस्तुतः मेरा इनसे कुछ सम्बन्ध नहीं है । हमारी जिल्ह्वा पर ही न थिरकते रहें ये शब्द इन्हें अन्तर में उतारने का प्रयत्न बराबर चालू रहे। इन भावों के द्वारा सचित प्रचित्त परिग्रह के स्वरूप को समझें, जिन्हें अपना मानकर चलने का अभ्यास हमें अनादि काल से है । शुद्ध समझ न होने के कारण श्रनित्य में ही नित्यता का आभास हो रहा है । कभी सोचा नहीं ! चिन्तन किया नहीं । सही समझ के प्रभाव में इधर-उधर सुख प्राप्ति के लिए दौड़ते रहे। हमें एक नजर इधर भी डालनी है। जब शिविरों में प्रवेश किया जाता है, तब साधक के साथ पल्प परिग्रह रहता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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