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________________ आलंकारिक दृष्टि से भी उत्तराध्ययनसूत्र एक चिन्तन / १०१ अध्ययन १२ - गाथा १२ - - ' पुण्णमिणं खु खेत्त" - पुण्य रूपी क्षेत्र ( कृषि भूमि ) । इसमें रूपक है तथा गाथा में उदाहरण है । --- - गाथा १३ – 'जे माहणा जाइ बिज्जोववेया' 'ताई तु खेताई....।' - जो ब्राह्मण जाति और विद्या से श्रेष्ठ हैं वे पुण्यक्षेत्र हैं । अर्थात् बाकी सब पापक्षेत्र । इसमें तिरस्कार अलंकार है । गाथा १४ - जो कषायग्रस्त हैं तथा जिनमें हिंसा, झूठ, चोरी और परिग्रह हैं वे ब्राह्मण जाति और विद्या से विद्दोन पापक्षेत्र हैं। इसमें भी 'खेत्ताई सुपावयाई' में रूपक है। गाथा २६ – 'गिर नहेहि खणह, अयं दन्तेहि खायह । जायतेयं पाएहि हणह ""' पर्वत को नख से खोदना, दांतों से लोहा बवाना और पैरों से अग्नि को कुचलना असंभव है। ग्रतः इसमें असंभव नामक अलंकार है । गाथा २७ – 'अमणि व पक्खंद पयंगसेणा - पतंगे की भांति अग्नि में गिरना । इसमें उपमा तथा अनुप्रास है । गाथा ४३ –— के ते जोई ? के व ते जोइट्ठाणे ? का ते सुया ? किं व ते कारिसंग ? एहा य ते करा संति ? भिखू ! कयरेण होमेण हुणासि जोई ? इसमें प्रश्न ही प्रश्न है अतः परिसंख्या अलंकार है । " गाथा ४४ तप ज्योति प्रात्मा उसका स्थान, विभोग कड़छी, शरीर कण्डे, कर्म इन्धन, संयम में प्रवृत्ति शांतिपाठ है। अतः आत्मिक यज्ञ का स्वरूप है। इसमें रूपक अलंकार है। गाथा ४५ में परिसंख्या तथा ४६ में रूपक अलंकार है, यथा गाथा ४५-४६ – 'ग्रात्मभाव की प्रसन्नतारूप प्रकलुष लेश्यावाला धर्म मेरा हव होता हूँ।' साथ ही अनुप्रास है । जहाँ स्नान कर में विशुद्ध, विमल एवं कर्मरज से दूर अलंकार भी । अध्ययन १३ -- गाथा १६ - 'सब गीत श्राभरण भार है और सब काम भोग दुःखप्रद हैं । तथा अनुप्रास अलंकार है । + विलाप है, सब नृत्य विडंबना है, सब इस गाथा में रूपक, विरोधाभास, यमक Jain Education International " 'सव्वं विलयियं गीयं सवं नष्टं विडम्बियं । सव्वे आभरणा भारा, सव्वे कामा दुहावहा ॥' गाथा २२ ---' जहेब सीहो व मियं गहाय, मच्चू नरं नेइ दु अन्तकाले ।' - जैसे सिंह हरिण को पकड़कर ले जाता है वैसे ही मृत्यु मनुष्य को ले जाती है। इसमें उदाहरण तथा उपमा अलंकार है । गाथा ३० --- 'नागो जहा पंकजलावसन्नो' - ' जैसे पंकजल - दलदल में धंसा हाथी स्थल को देखता है पर किनारे नहीं पहुंच पाता है। वैसे मनुष्य कामभोगों में प्रासक्त हो भिक्षुमार्ग पर नहीं आते।' इसमें उदाहरण अलंकार है । For Private & Personal Use Only धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.lainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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