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________________ अर्चनार्चन की बुनियाद पर स्थायी शान्ति स्थापित करने का विचार छलना मात्र एवं प्रकल्याणकारी भ्रम ही सिद्ध होगा। (अजेय प्रात्मशक्ति)। आत्मिक बल बढ़ाने के उपाय हैं-अंतर्ज्ञान, इन्द्रिय-निग्रह एवं तपस्या (प्रात्मशक्ति का विकास) । इस भाग में मनोव्याधियों और उनके उपचार तथा कषाय विष (खण्ड १ एवं २) पर भी प्रवचन संकलित हैं। इन प्रवचनों में कहा गया है कि शारीरिक एवं मानसिक दोनों ही स्वास्थ्य प्रावश्यक हैं। मन के भयंकर रोग अस्थिरता, चिन्ता, काम, मूढता या मोहग्रस्तता तथा आत्महीनता होते हैं। इनके शमन के लिये शुभ कार्यों में व्यस्तता, श्रेष्ठ चिन्तन, कुसंग का त्याग, सत्संग, सद्ग्रन्थों का पठन, स्वाध्याय आदि उपचार आवश्यक हैं। इसी प्रकार मनुष्य को अपनी प्रात्मा के हित के लिये पाप बढ़ाने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ के कषायों का त्याग कर देना चाहिए। सदैव यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि कषाय हम पर हावी होकर प्रात्मा की ज्योति को आच्छादित करके मन्द न कर दे। इस भाग के अन्तिम दो प्रवचन 'स्वागत है पर्वराज' तथा 'पुनीत पर्व संवत्सरी' हैं। लोकोत्तर पर्यषण पर्व द्वारा प्रतिपादित आत्मसाधना का मंगलमय सन्देश रेखांकित करते हुए कहा गया है कि सामायिक, पौषध, स्वाध्याय, तपस्या आदि बाह्य क्रियानों को करते हुए भी यह नहीं भूलना चाहिए कि धर्म वस्तुत: प्रात्मा की वस्तु है और उसका जागरण अंदर से होगा । संवत्सरी भी एक ऐसा ही पर्व है जो यह बताता है कि हृदय में सेवा-भावना, दया, क्षमा आदि गुणों का समाहित होना ही सच्ची सामायिक, सच्चा प्रतिक्रमण, सच्ची तपस्या और सच्चा धर्म है। 'आम्रमंजरी' के दूसरे भाग में मानवीय दिशामों के बारे में विचार-बिन्दु प्रस्तुत किये गये हैं। महासती ने इस बात पर जोर दिया है कि संसार के विभिन्न धर्मों एवं मतसम्प्रदायों का लक्ष्य एक ही है-मुक्ति प्राप्त करना अर्थात् समग्र बन्धनों को नष्ट कर सिद्ध बुद्ध हो जाना। हमारा कर्तव्य है कि हम स्वधर्म का पालन करें एवं व्यर्थ के साम्प्रदायिक एवं धार्मिक प्रपंचों एवं संघर्षों से मुक्त होकर सद्विचार और सदाचार को अपने जीवन में उतारें। यह सब बिना श्रद्धा के संभव नहीं है। श्रद्धावान् ही ज्ञान प्राप्त करता है तथा प्राप्त कर संसार-सागर से पार हो जाता है। सांसारिक त्रिविध तापों से छुटकारा पाने के लिये इसी कारण श्रद्धा, ज्ञान एवं क्रिया आवश्यक है। भौतिक प्राकर्षणों से मन को दूर करने का एक शक्तिशाली माध्यम भक्ति भी है। भक्ति का अर्थ होता है भाव की विशुद्धि से युक्त प्रेम । सरल तथा सहज रूप से भक्ति करने वालों को ही भगवान मिलते हैं, न कि बाह्य क्रियाएँ करने वालों को। जिस भक्ति में ope जो श्रमण सम समाहिकामे समणे तवस्सी जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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