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________________ 55555555276 Moto अ र्च ना र्च न । आम्रमंजरी - इस प्राकर्षक ग्रन्थ का यह तृतीय संस्करण दिसम्बर, १९६२ ई. में प्रकाशित हुआ था, वैसे प्रथम संस्करण सन् १९६६ ई. में ही सुधीजन के हाथों में पहुँच चुका था । ग्रन्थ के प्रकाशक मुनि श्री हजारीमल स्मृति - प्रकाशन, ब्यावर हैं। वस्तुतः यह इस प्रकाशन संस्थान का प्रथम पुष्प ही है। इन प्रवचनों को, जो महासतीजी के ब्यावर वर्षावास की अवधि में धावक संघ के सम्मुख दिये गये थे, संघ द्वारा लिखित रूप में संकलित तथा श्रीयुत पण्डित प्रवर शोभाचन्द्रजी भारिल्ल की सुयोग्यतम पुत्री श्रीमती कमला जैन 'जीजी' द्वारा प्रालेखित एवं सम्पादित किया गया 'जीजी' का 'आम्रमंजरी' के बारे में यह कहना कतई अन्यथा नहीं है कि 'पुस्तक पढ़कर पाठकों को स्वयं अनुभव हो जायेगा कि महासतीजी का विभिन्न दर्शनों पर तथा विशेषतः जनदर्शन पर कितना गंभीर अध्ययन है।' ग्रन्थ की अनुक्रमणिका तीन भागों में विभक्त है। प्रथम भाग, जिसका शीर्षक है'अध्यात्म एवं साधना', बारह प्रवचनों का पुंज है 'मानव दिशाएँ और बिन्दु' शीर्षक के अंतर्गत दस प्रवचन संकलित हैं, जबकि इतने ही प्रवचन तीसरे भाग 'मनुष्य और समाज' के वर्ण्य विषय हैं । संक्षेप में इन प्रवचनों पर चर्चा समीचीन है । सर्वप्रथम जिसके कुछ अंश इस प्रकार हैं: - ( कोष्ठक में प्रवचन के शीर्षक प्रदत्त हैं ।) किसी भी प्रकार की आध्यात्मिक साधना के लिये मन की शुद्धि परमावश्यक है। वैसे मन बड़ा चंचल, बलवान् पोर प्रमादी है, किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार उसे अभ्यास एवं वैराग्य से वश में किया जा सकता है। जैनदर्शन भी मन को बिना दवाये बिना यातना दिये बिना तिरस्कृत किये - पहले भाग को लें Jain Education International , और बिना उसे स्वतंत्र छोड़े अत्यंत शान्तिपूर्ण व संयत तरीके से बोध देने का निर्देश देता है और इस प्रकार उसे साधना में सहायक बनाता है । ( साधना की धुरी - मन ) । निर्दिष्ट साध्य को प्राप्त करने के लिये साधना करना आवश्यक है किन्तु उसका लक्ष्य जीवन को निर्मल, पवित्र एवं उज्ज्वल बनाना होना चाहिए। इस प्रकार सच्ची साधना अंतर्मुखी होनी चाहिए न कि बहिर्मुखी, वह आत्म-प्रधान हो, न कि देह प्रधान इस सम्बन्ध में भगवान् महावीर का यह उपदेश ध्यान में रखना आवश्यक है कि पहले ज्ञान और विवेक है फिर आचार और साधना । सम्यक् दर्शन समग्र साधना का मूलाधार होता है । ( साधना का मर्म ) । साधना का एक मात्र लक्ष्य वही है कि वह विषमता से समता की घोर अग्रसर हो इस हेतु साहस, अंत: शक्ति, आत्मविश्वास एवं उदात्त भावना का होना श्रावश्यक है । ( साधना का प्रथम चरण) । योग एक आध्यात्मिक साधना एवं ग्रात्म विकास की प्रक्रिया है। भारतीय संस्कृति योग को अत्यधिक महत्त्व देती है । निवृत्तिप्रधान जैन धर्म में योग का अर्थ मन, वचन और काय की प्रवृत्ति होता है । प्राचार्य हरिभद्र सूरि के अनुसार योग की पाँच भूमिकाएँ अध्यात्म, भावना, ध्यान, समता, और वृत्तिसंक्षय होती हैं । ( योग-साधना) । मानव को आत्मस्थित होकर विवेक के द्वारा अपने कर्तव्य की मीमांसा करना चाहिए क्योंकि अन्याय प्रसत्य और कपट तृतीय खण्ड For Private & Personal Use Only , www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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