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(महासती अर्चनाजी के तीन प्रवचन-संग्रहों पर एक विहंगम दृष्टि)
9 डॉ. श्यामकुमार निगम
राजस्थान के स्थानकवासी जैन समाज की श्रेष्ठतम साध्वियों में महासती उमरावकुंवरजी 'अर्चना' का एक विशिष्ट स्थान है। भारत की आधुनिक जैन साध्वियों की शीर्षस्थ पंक्ति में सम्मानपूर्वक परिगणित की जा सकने योग्य इस परम विदुषी महासती का अध्ययन अपरिमित एवं चिन्तन प्रगाढ़ है । महान् मनस्वी तपोनिष्ठ गुरुदेव स्व. मुनि श्री हजारीमलजी महाराज की सन्निधि एवं गुरुणी श्री सरदारकुंवरजी महाराज की नेश्राय में आपने जो संयम-संकल्प वि. सं. १९९४ में ग्रहण किया था वह, अनवरत अध्ययन एवं दार्शनिक प्रतिभा का अद्वितीय आधार तथा राजस्थान, दिल्ली, पंजाब, हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर, मध्यप्रदेश प्रादि राज्यों की पदयात्राओं एवं वर्षावासों का सुदीर्घ अनुभव पाकर, आज अत्यन्त ही परिपक्व एवं अध्यात्म-पुष्ट होकर, व्यावहारिक अभिव्यक्ति की दिशा में तीव्ररूपेण अग्रसर है। उनकी यह अभिव्यक्ति उनके प्रवचनों के माध्यम से अत्यंत गरिमा, औदार्य, मधुरता, आनुभविकता, विश्लेषकता एवं शैलीगत वैशिष्ट्य जैसे सद्गुणों का सम्बल पाकर एक अद्भुत प्रभावोत्पादकता उत्पन्न करने एवं मानव-चेतना को ऊर्ध्वमुखी स्तरों की ओर सम्प्रेरित एवं सम्प्रेषित करने में सर्वथा सफलीभूत हुई है। यही 'अर्चना' की सार्थक अर्चना है जो कतिपय बहुमूल्य प्रकाशनों के माध्यम से सुधी एवं सांस्कृतिक जगत् के सामने आई है। उस पर गंभीरतापूर्वक विचार एवं विश्लेषण अावश्यक है, क्योंकि अनेक बार ऐसा अनर्थ भी हना है कि समष्टिगत कल्याण के लिये किया गया सार्वभौम चिन्तन का महाकाश, किसी मत-सम्प्रदाय की दृष्टि से किये गये संकुचित वैचारिक-मंथन का घटाकाश मान लिया जाकर, उपेक्षा या अल्पावधानता का पात्र बन गया है।
महासती उमरावकंवरजी 'अर्चना' के प्रवचनों के तीन संकलनों पर समीक्षात्मक विचार, इस महान् विदुषी की अर्चना के रूप में प्रस्तुत करना, एक प्रात्मप्रेरित सहज प्रतिक्रिया है, उनके इन संकलनों को आद्योपांत पढ़ने के उपरांत ।
समाहिकामे समणे तवस्सी - ओ भ्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी
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