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तृतीय खण्ड
ले ५२
सम-भाव मेरा जगत के सब प्राणियों पर रह सके, मन वज्र सदृश प्रहार को भी मुदित होकर सह सके । चित्त मेरा हो परे प्रभु प्रार्त, रौद्र कुध्यान से, बस शेष दोनों प्रात्मा में रम सकें तव नाम से। एकमात्र यही अरज इस "अर्चना" की मान लो, तुम पतित पावन मैं पतित उद्धार करना ठान लो। तव नाम से ही पा सकूँ मैं कभी परमानन्द को, जागृत करो वह शक्ति तोड़ दुःखदायी बन्ध को। जन्म-मृत्यु मिटा सर्व बस लक्ष्य मेरा हो यही, तुम हो समर्थ तभी तुम्हीं से करुण गाथा है कही।
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5 दलबENo.
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