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________________ आत्म-निवेदन [] साध्वी उमरावकुंवर 'अर्चना' Jain Education International हे जिनेश ! कृपालु भगवन् ! सर्वज्ञ हो अब मैं कहूँ क्या आप नाथ अनाथ के, शरण आई आप के । ढोये सदा अघ-भार प्रात्मा लवलेश भी सुख पा सकी ना, रही चार गतियों में फिरी, कर्मों से घिरी । बस राग-द्वेष कषाय के वश जाने जाने पाप से मन कर याद सबकी आज मस्तक कैसे पुका आपको साहस नहीं होता है घोर पश्चात्ताप कर्म प्रतीत में हैं जो आँखें बरसती आज अविरल हृदय के टुकड़े अकरणीय सदा करा, आज है पूरा भरा । झुक रहा है हे विभो, प्रभो । किये, हुये । नाम क्योंकर आपका कर दो क्षमा कैसे औ' दुःख जो दिल में प्रसह है पथ का प्रदर्शक आज कोई भी कोई हितैषी भी नहीं मिलता 1 कहूँ, इसे भी कैसे सहूँ । न दिखता है यहाँ, भले जाऊँ कहाँ । बाना बदलकर विरुद बाने का नहीं जाना प्रभो, धोखा स्वयं खाया जगत् को भी दिया मैंने अहो । संधान साहस का कभी कर स्मरण करती आपको, कर-बद्ध विनती आपसे मेटो सकल संताप को । स्वामी न मुझको प्रीति है जलबिन्दुवत् संसार से, है नहीं मतलब जगत् के सुख और झूठे प्यार से । केवल वचन, मन और तन से ही विशुद्ध बनी रहूँ, हो वासना से विरत संयत साम्य भावों को कहूँ । समाहिकामे समणे तवस्सी जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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