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तुतीय खण्ड
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अंतरात्मा का स्वर नहीं है, वह भक्ति मात्र दिखावा होती है तथा प्रात्म-कल्याण का साधन कभी नहीं बन सकती।
मानवता एवं मानवीय गुणों की सार्थक चर्चा भी इस भाग में हुई है । वस्तुतः मनुष्य का नाम एवं रूप धारण करना मानवता नहीं है। मानवता, अभेदता, अशोषण, अपरिग्रह, अहिंसा, पारस्परिक विश्वास एवं प्रेम जैसे सदगुणों के व्यावहारिक अात्मसातीकरण में निहित होती है । मानवता एवं महत्ता में अविच्छिन्न संबंध होता है। दोनों ही एक दूसरे के पूरक एवं सहयोगी होते हैं, यद्यपि मनुष्य के बहिरंग जीवन का मानवता से तथा अंतरंग जीवन का महत्ता से सम्बन्ध होता है। सत्संगति, अहिंसा, दान, परोपकार, मैत्रीभाव आदि मानवता के परिणाम होते हैं जबकि प्रार्थना, भक्ति, ईश्वर-प्रणिधान, अंतर्ज्ञान, प्रात्मशुद्धि, इन्द्रिय-दमन आदि गुण महत्ता के मूल होते हैं।
इस भाग के अन्य लेखों में महासतीजी ने गुरु की महत्ता, वाणी-माधुर्य एवं प्रिय वचनों की सार्थकता, विनम्रता एवं विनय की अर्थवत्ता तथा सच्ची मैत्री के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए इन्हें मानव-जीवन के अभ्युदय, साफल्य एवं उदात्तीकरण का व्यावहारिक माध्यम माना है। _ 'पाम्रमंजरी' का तीसरा भाग मनुष्य और समाज के पारस्परिक सहसम्बन्धों पर आधारित है। विभिन्न प्रवचनों में इस बात पर जोर दिया गया है कि अनवरत परिश्रम, सक्रियता, अप्रमाद, सोद्देश्यता, कर्त्तव्यशीलता, सतत उद्योग, सदाचार, सम्यक् विचार आदि सद्गुण, प्रगति-वास्तविक रूप में प्रगति के विभिन्न चरण हैं। दान का प्रभाव असीम होता है । वह आत्मिक गुणों के विकास की पहली भूमिका है। मनुष्य को भोजन, औषधि, शास्त्र और अभय-इन चार प्रकार के दान करते रहना चाहिए क्योंकि यह आत्मा को शान्ति तथा सन्तोष देने वाला है । अर्चनाजी का एक प्रवचन में सन्देश है कि मनुष्य का चरित्र दो प्रकार से भव्य बनता है, प्रथम तो उत्तम विचार से तथा द्वितीय विचारों के अनुरूप आचरण से । ऐसा होने से वह ईमानदार बनेगा तथा उसकी समस्त संदों में प्रामाणिकता बढ़ेगी। यह प्रामाणिकता मनुष्य को उन्नति के शिखर पर ले जाकर उसके जीवन में दिव्यता ला सकती है।
एक अन्य प्रवचन में नारी के महिमामय रूप पर प्रकाश डाला गया है और मनु महाराज की इस बात को पुष्ट करने का प्रयास किया गया है कि जहाँ नारी की पूजा होती है, वहाँ देवता रमते हैं। वास्तव में नारी साक्षात् प्रेरणा ही होती है। उसने त्याग, प्रेम, उदारता, सहिष्णुता, वीरता, सेवा आदि सद्गुणों से मानव को अभिभूत कर धर्म, शिष्टता एवं संस्कृति की रक्षा की है। इस भाग के अपने अन्य प्रवचनों में महासती अर्चनाजी ने
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