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________________ Jain Education International चतुर्थ खण्ड / २३२ दन्त - ज्योत्स्ना गगन - मंडल में फैलती हुई विश्व को अपनी धवलता से आप्लावित कर रही है । ऐसी स्थिति में अभिसार के लिए चन्द्रोदय की प्रतिक्षा क्यों की जाय ? यथा मुग्धे दुग्धा दिवाशा रचयति तरला तैः कटाक्षच्छटाली, दस्तज्योत्स्नाऽपि विश्वं विशदयति वियन् मण्डलं विफुरन्ती । उत्फुल्लद्गंडपाली विपुलपरिलसत् पाणिमाडम्बरेण, क्षिप्तेन्दौ कान्तमदाभिसार सरभसं किं तवेन्दुद्वयेन ॥७९॥ जिनवल्लभसूरि के शिष्य जिनदत्तसूरि ने भी संस्कृत में कई ग्रन्थ लिखे हैं । उनकी रचनाएँ भक्तिरस को प्रवाहित करती हैं। चित्तौड़ के समान मेवाड़ प्रान्त का मांडलगढ़ भी जैन मुनियों एवं कवियों की साहित्य साधना का केन्द्र रहा है। तेरहवीं शताब्दी के महाकवि आशाधर मांडलगढ़ के मूलनिवासी थे । उनकी रचनाओं में अध्यात्मरहस्य, सागारधर्मामृत, अनगारधर्मामृत, जिनयज्ञकल्प आदि प्रमुख हैं । इन्होंने अपने संस्कृतग्रन्थों द्वारा मनुष्य के दैनिक आचरण को नैतिक बनाने में पूरा योगदान किया है । इनके ग्रन्थ जैन श्राचार के विश्वकोष हैं । जैन मुनियों ने अपनी संस्कृत रचनाओं द्वारा मेवाड़ के साहित्यिक वातावरण को प्रभावशाली बनाया है । १५वीं शताब्दी में अनेक जैनाचार्य मेवाड़ में साहित्य - साधना में रत रहे हैं । इसके पूर्व जैन भट्टारकों ने मेवाड़ को संस्कृतसाहित्य से समृद्ध किया है। भट्टारक सकलकीर्ति, भुवनकीति, ब्रह्मजिनदास, शुभचन्द्र एवं भट्टारक प्रभाचन्द्र की सैकड़ों रचनाएँ संस्कृत में मेवाड़ में लिखी गयी हैं । इन रचनाओं का काव्यात्मक महत्त्व तो है ही, मेवाड़ के इतिहास की सामग्री भी इसमें भरपूर है । इन भट्टारकों ने मेवाड़ में चित्तौड़, उदयपुर, ऋषभदेव प्रादि में जैन ग्रन्थभण्डारों की स्थापना कर मेवाड़ के संस्कृतसाहित्य को सुरक्षा प्रदान की है । इन भट्टारकों की साधनाभूमि चित्तौड़ एवं डूंगरपुर जिले के गाँव रहे हैं । मेवाड़ के जैन मुनियों में भट्टारक सकलकीर्ति एक ऐसे कवि हैं, जिन्होंने २५-३० ग्रन्थ संस्कृत में लिखे हैं । इन्होंने पुराण, कथा, चरित्र एवं स्तोत्र आदि सभी विधानों को अपनी संस्कृत रचनाओंों से पुष्ट किया है। सकलकीर्ति का यह चिन्तन था कि साहित्य ऐसा होना चाहिये जो मनुष्य के जीवन को उन्नत करे । अपने "आदिपुराण" में वे कहते हैं कि जिस कथा के श्रवणमात्र से भव्य जीवों के समस्त राग-द्वेष, मोहादि दोषों का प्रक्षालन हो जाय और उनके स्थान पर सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र श्रादि गुण उत्पन्न हो जाएँ तथा दान-पूजा, ध्यान आदि की वृत्तियाँ बढ़ जाएँ वही शास्त्र वास्तविक है । यथा--- येन श्रतेन सभ्यानां रागद्वेषादयोऽखिलाः । दोषा नश्यंति मोहेन सार्धं ज्ञानादयो गुणाः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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