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________________ मेवाड़ के संस्कृत साहित्य की जैन परम्परा/२३३ संवेगाद्याश्च वर्द्धन्ते जायते भावनारुचिः । दानपूजातपोध्यानव्रताद्या मोक्षवमसु॥ स० १ श्लोक ३३-३६ सकलकीति की रचनाओं से ज्ञात होता है कि उस समय संस्कृत सभी वर्ग के लोग समझते थे। समाज में संस्कृत के ग्रन्थों के पठन-पाठन की व्यवस्था थी। सकलकीति कहते हैं कि मैंने आबाल-स्त्री-वद्ध लोगों को सारभूत तत्त्वों का ज्ञान कराने के लिए संस्कृत भाषा में ग्रन्थ लिखे हैं। ग्रन्थोऽत्रव वरः पुराणकलितो बह्वीकथासंभृतः। बालस्त्रीसुन्दरीणामतीवसुगमो गीर्वाणसद्भाषया । उ० पु० १५-२१८ संस्कृत के इन ग्रन्थों में जैनमुनियों ने यद्यपि परम्परागत महापुरुषों को ही चरित्रनायक बनाया है, किन्तु अपने समय के शासकों एवं सज्जन पुरुषों का स्मरण भी इन ग्रन्थों में किया गया है। जैन मुनियों का राजवंशों से भी सम्पर्क रहा है। इस दृष्टि से उनके ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं। राणकपुर और दिलवाड़ा भी जैन मुनियों की साहित्यसाधना के केन्द्र रहे हैं। मुनि सोमसुन्दर को राणकपुर में वाचकपद प्राप्त हुआ था । उन्होंने दिलवाड़ा में रहकर संस्कृत में कई रचनायें लिखी हैं। सोमदेववाचक इनके शिष्य थे। उन्हें महाराणा कुम्भा ने कविराज की उपाधि प्रदान की थी। महाराणा कुम्भा के ही समकालीन महाकवि प्रतिष्ठासोम हुए हैं। इनकी रचनाओं "सोमसौभाग्यकाव्य" एवं “गुणरत्नाकर' प्रसिद्ध संस्कृत रचनाएँ हैं, जिनमें तत्कालीन मेवाड़ी संस्कृति की प्रामाणिक जानकारी मिलती है। १५वीं शताब्दी के जैनकवियों में महोपाध्याय चरित्ररत्नगणि एवं जिनहर्षगणि प्रमुख हैं, जिन्होंने चित्तौड़ में संस्कृतकाव्य लिखे हैं। जिनहर्षगणि का "वस्तुपालचरित" एक ऐतिहासिक काव्य है । मेवाड़ में वाग्भट्ट नामक एक जैन कवि हुए हैं, जिन्होंने छन्दशास्त्र और काव्यशास्त्र पर ग्रन्थ लिखे हैं। स्वतन्त्र काव्यग्रन्थों के अतिरिक्ति जैन मुनियों ने मेवाड़ में रहते हुए संस्कृत में कई प्रशस्तियाँ भी लिखी हैं। १२वीं शताब्दी के जनकवि रामकीत्ति ने चित्तौड़गढ़ में एक प्रशस्ति लिखी, जिसमें कुमारपाल के वहाँ आगमन का वर्णन है। प्राचार्य रत्नप्रभसूरि ने वि. सं. १३२२ में एक प्रशस्ति लिखी, जो चित्तौड़ के समीप घाघसे की बावड़ी में लगी हुई है। इन्हीं की दूसरी संस्कृतप्रशस्ति चीखा गाँव में लगी हुई है। इसमें १५ श्लोक हैं, जिनमें गुहिल वंशी बाप्पा वंशजों के पराक्रम का वर्णन है । गुणभद्र नामक जैन मुनि ने वि. सं. १२२६ में बिजीलिया के जैन मन्दिर की प्रशस्ति लिखी थी। १५वीं शताब्दी में चारित्ररत्नगणि ने महावीर प्रशस्ति लिखी है, सरस्वतीस्तुति के उपर्यन्त मेवाड़ देश का सुन्दर वर्णन किया गया है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी इन प्रशस्तियों का विशेष महत्त्व है। इस प्रकार मेवाड़ में ५वीं शताब्दी से १५-१६वीं शताब्दी तक जैन मुनियों द्वारा संस्कृत भाषा में काव्यमय रचनाएँ लिखी जाती रही हैं। अाधुनिक युग में भी मेवाड़ के कई जैन मुनियों ने संस्कृत में काव्य लिखे हैं। इन मुनियों की संस्कृत रचनाओं को एकत्र कर यदि प्रकाशित किया जाय तो संस्कृतकाव्य के इतिहास की समृद्धि तो होगी ही, उससे मेवाड़ की संस्कृति के कई पक्ष भी उजागर हो सकते हैं। | धम्मो दीतो संसार समुद्र में वर्म ही दी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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