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________________ भाव-शुद्धि-विहीन शुभ-कर्म खोखले स्वार्थ और आडंबर-युक्त अनाचार का स्थान अहिंसा, प्रेम, निःस्वार्थता तथा सदाचार आदि सद्गुण ले लेते हैं। जिज्ञासु भक्त विवेकपूर्वक सत्य और असत्य को समझकर प्रात्म-निरीक्षण करता हुआ अपने मन को उद्बोधन और चेतावनी देता रहता है मक्सदे जिन्दगी न खो, यूही उम्र गुजारकर । अक्ल को होश से जगा, होश को होशियार कर ॥ (४) तन्मय-भक्ति-तन्मय भक्त, भौतिक संपत्ति, शारीरिक सुख अथवा पुत्र-पौत्रादि किसी की चाह नहीं रखता। उसके मन को परमात्मा में लीन होकर ही तृप्ति का अनुभव होता है । कहा है यद् अग्नेस्यामहं त्वं त्वं वा धास्या अहम् । स्युष्टे सत्या इहाशिषः। अर्थात्-हे प्रकाश-स्वरूप ! जब मैं तू हो जाऊँ या तू मैं हो जाय तो सम्पूर्ण जीवन के तेरे वे आशीर्वाद सफल हो जाय । तो आपने समझ लिया होगा कि भक्ति के प्रकार कैसे होते हैं और जिज्ञासा के पश्चात जो तन्मय भक्ति जागृत होती है, वही साधना में सहायक बनती है। इतना ही नहीं, तन्मय या सच्ची भक्ति के अभाव में साधना का होना भी संभव नहीं है । तन्मय भक्ति ही भाव-शुद्धि करती है और आत्मिक ज्ञान को सही रूप में जगाकर शुद्ध-क्रियाओं को करने के लिये प्रेरित करती है। इसलिये मुक्ति के इच्छुक मानव के मन में भाव-शुद्धि होना अनिवार्य है, क्योंकि इसके अभाव में कर्म-शुद्धि नहीं हो सकती और जब तक कर्म-शुद्धि न हो साधना में सफलता नहीं मिल सकती । शुद्धि और अशुद्धि का द्वन्द्व जब तक चित्त में चलता रहता है, तबतक अहं भी अन्दर छिपा रहता है, किन्तु जब शुद्धता अशुद्धता को ग्रस लेती है, उसी पल मानस में उन दिव्य गुणों का स्थायित्व हो जाता है जो प्रात्मा को परमात्मा बनाते हैं। कहा भी है णेमं चित्त समादाय, भुज्जो लोयंसि जायइ । -निर्मल चित्त वाला साधक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता। me. समाहिकामे समणे तवस्सी - ओ भ्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी 27 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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