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________________ .37री ना च न . सुतीय खण्ड मज्जा, मल-मूत्र एवं हड्डियों से सभी का बना है अतः वह किसी का भी पवित्र नहीं होता। दूसरे, इसमें रहने वाला जो प्रात्मा है, वह कभी अपवित्र हो नहीं सकता।" "मैंने प्रायः आप सरीखे महात्मानों के उपदेशों को सुना है-"जीवो ब्रह्म व नाऽपरः" यानी जीव ईश्वर ही है, दूसरा नहीं । अब आप मुझे बताइये कि अद्वैत वेदान्त में छूआछूत का उल्लेख कहाँ किया गया है ?" एक हरिजन के मुंह से यह गूढ-ज्ञान-भरा सत्य सुनकर शंकराचार्य दंग रह गए। उनकी समझ में आ गया कि वे स्वयं भूल कर रहे हैं। भक्ति का किसी भी प्राणी के शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह भाव-शुद्धि में पनपती है और प्रात्मा की निर्मलता से ही परवान चढ़ती है। उन्होंने अपने अहं और बड़प्पन का तत्काल परित्याग करते हुए उस अछुत-बन्धु को प्रणाम किया और उसे अपना गुरु मानकर बिना पुनः स्नान किये अपने आश्रम की ओर लौट गए । भक्ति का माहात्म्य उन्होंने समझ लिया। 4.4 फही. __9/04.4. भक्ति और साधना बंधुनो! आज की बात समाप्त करने से पूर्व हमें संक्षिप्त में भक्ति और साधना के अंतर को भी समझ लेना चाहिये । यद्यपि दोनों में विशेष अन्तर नहीं है और दोनों ही प्रात्मा को निर्मल बनाकर मुक्ति-पथ पर अग्रसर करती हैं, किन्तु भक्ति के विषय में यह कहा जा सकता है कि भक्ति साधना का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग है । हम मुख्य रूप से इसको चार भेदों के द्वारा समझ सकते हैं। यथा (१) प्रात-भक्ति-मनुष्य जब किसी घोर संकट अथवा कष्ट में होता है, तब भगवान् को पुकारकर उनसे प्रार्थना करता हुआ दुःख-मुक्त होना चाहता है । (२) अर्थार्थ-भक्ति-इसके वशीभूत होकर व्यक्ति प्रभु से अर्थ अर्थात् धन के लिये प्रार्थना करता है तथा दीपावली आदि के अवसर पर लक्ष्मी की पूजा भी बड़े भक्ति-भाव से की जाती है। इतना ही नहीं, अनेक व्यक्ति संतों के प्रवचनों में कोई अंक सुनाई दे जाता है तो उस नम्बर का लाटरी का टिकिट खरीद लेते हैं अथवा सट्टे में दाँव लगा देते हैं। उपर्युक्त दोनों प्रकार की अंध-भक्ति आत्मा के उत्थान में सहायक नहीं बन सकती, क्योंकि उनमें सांसारिक सुख के लिये स्वार्थ निहित होता है। (३) जिज्ञासा-भक्ति-यह तीसरे प्रकार की भक्ति होती है, जिसके द्वारा भक्त सांसारिक झमेलों से कुछ ऊपर उठकर ईश्वरीय-स्वरूप को जानने की आकांक्षा करता है तथा मात्मा, परमात्मा, बंध और मोक्ष को समझने का प्रयत्न करता है । इसके फलस्वरूप उसकी चेतना अज्ञान की अंधेरी गुफा से निकलकर ज्ञान की ज्योति प्राप्त कर लेती है तथा हिंसा, घृणा, 26 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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