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________________ भाव-शुद्धि-विहीन शुभ कर्म खोखले इत कुल की करनी तर्ज, उत न भजे भगवान । तुलसी अधवर के भये, ज्यों बगूर को पान ॥ स्पष्ट है कि जो भाव -शुद्धि के प्रभाव में वैराग्य का लबादा ओढ़कर संन्यासी बनने का दम भरते हैं, किन्तु घर छोड़कर भी भेंट- पूजा और प्रसिद्धि आदि की कामना का त्याग नहीं कर पाते वे न तो इस लोक में ही सराहना के पात्र बनते हैं और न परलोक में सुगति प्राप्त कर पाते हैं । तुलसीदासजी के कथनानुसार ऐसे व्यक्ति सदा जन्म-मरण के चक्र में उसी प्रकार घूमते रहते हैं, जिस प्रकार पत्ता पवन के बवण्डर या बगूले में चक्कर काटता रहता है । कहने का अभिप्राय यही है कि पूर्णतया निर्मल निःस्वार्थं एवं कामनारहित भक्ति या साधना करना सरल नहीं है अपितु लोहे के चने चबाने के समान होता है । पूर्ण भाव-शुद्धिपूर्वक भक्ति करने का आनन्द गूंगे के गुड़ के समान केवल भक्त ही जान सकता है । हमारा जैन दर्शन भक्ति का लक्ष्य श्रात्म शुद्धि ही मानता है । दूसरे शब्दों में यह भी कहा जा सकता है कि प्रभु भक्ति के निमित्त से श्रात्मा में शुभोपयोग उत्पन्न होता है और उसी के कारण पापों का क्षय होता चला जाता है । साधना या भक्ति में जप, तप, पूजा-पाठ, कीर्तन, स्वाध्याय, ध्यान एवं गुणानुवाद आदि अनेक क्रियाएँ करनी होती हैं, किन्तु वे सब शुद्ध तभी होती हैं जबकि चित्त-शुद्धि बनी रहे और अंतःकरण निर्मल तन्मयता से परिपूर्ण हो । चित्त-शुद्धि प्रथवा भाव-शुद्धि के अभाव में भक्ति के लिये की गई उपर्युक्त सभी क्रियाएँ पूर्णतया निष्फल जाती हैं । इसलिये प्रत्येक मुमुक्षु को चाहिये कि भक्ति और साधना, अहंकार तथा भेद-भाव आदि से रहित होकर शुद्ध हृदय से करे । पौराणिक कथात्रों में शंकराचार्य का एक प्रेरणादायक प्रसंग श्राता है। एक बार वे प्रातःकाल के समय नदी में स्नान करके अपने श्राश्रम की ओर लौट रहे थे । संयोगवश मार्ग में एक हरिजन उनसे टकरा गया। शंकराचार्य अत्यंत क्रोधित होकर तिरस्कारपूर्वक उससे बोले "अरे नराधम ! तूने मुझे छूकर अपवित्र कर दिया ? अब मुझे पुनः स्नान करने जाना पड़ेगा ।" हरिजन व्यक्ति नहीं जानता था कि वे महान् गुरु शंकराचार्य । फिर भी वह अत्यंत सहमकर विनयपूर्वक हाथ जोड़ते हुए बोला " भक्तराज ! मुझे क्षमा करें । उतावली के कारण मुझसे अपराध हो गया । किन्तु कृपया मुझे यह अवश्य बता दीजिये कि अपवित्र क्या हुआ है ? मेरे विचार से शरीर तो मांस समाहिकामे समणे तवस्सी जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है Jain Education International 25 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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