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________________ SO daya ५ चतुर्थ खण्ड | ६ marators apremsh अचनाचन अप्पसमे मन्निज्ज छप्पि काए' छह काय के प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझो। छह काय से यहां अभिप्राय मनुष्य, पशु, पक्षी, देव छोटे से छोटे कृमि और यहां तक कि जल, बनस्पति, पेड़ पौधे आदि प्राणिमात्र से है। जैन धर्म इन सभी में प्रात्मा मानता है और इसीलिए इनको दुःख देना, अनीति में परिगणित किया गया है, तथा इन सबके प्रति समत्वभाव रखना जैन नीति की विशेषता है। क्रूर, कुमार्गगामी, अपकारी व्यक्तियों के प्रति भी समता का भाव रखना चाहिये, यह जैन रीति है। भगवान पार्श्वनाथ पर उनके साधनाकाल में कमठ ने उपसर्ग किया और धरणेन्द्र ने इस उपसर्ग को दूर किया, किन्तु प्रभु पार्श्वनाथ ने दोनों पर ही सम भाव रखा। मनोविज्ञान और प्रकृति का नियम है कि क्रिया की प्रतिक्रिया होती है और फिर प्रतिक्रिया की प्रतिक्रिया। इस प्रकार यह क्रिया-प्रतिक्रिया का एक चक्र ही चलने लगता है। इसको तोड़ने का एक ही उपाय है-क्रिया की प्रतिक्रिया होने ही न दी जाय । किसी एक व्यक्ति ने दूसरे को गाली दी, सताया, उसका अपकार किया या उसके प्रति दुष्टतापूर्ण व्यवहार किया। उसकी इस क्रिया की प्रतिक्रिया स्वरूप वह दूसरा व्यक्ति भी गाली दे अथवा दुष्टतापूर्ण व्यवहार करे तो संघर्ष की, कलह की स्थिति बन जाये और यदि वह समता का भाव रखे, समता नीति का पालन करे तो संघर्ष शान्ति में बदल जायेगा। समाजव्यवहार, तथा लोक में शान्ति हेतु समता की नीति की उपयोगिता सभी के जीवन में प्रत्यक्ष है, अनुभवगम्य है। समतानीति का हार्द है-सभी प्राणियों का सुख-दुःख अपने ही सुख-दु:ख के समान समझना । सभी सुख चाहते हैं, दुःख कोई भी नहीं चाहता। इसका प्राशय यह है कि ऐसा कोई भी काम न करना जिससे किसी का दिल दुखे। और यह समतानीति द्वारा ही हो सकता है। अनुशासन एवं विनयनीति विनय एवं अनुशासन संसार की ज्वलंत समस्यायें हैं । अनुशासन समाज में सुव्यवस्था का मूल कारण है पर विनय जीवन में सुख-शान्ति प्रदान करता है। यद्यपि विनय तथा अनुशासन को सभी ने महत्त्व दिया है, किन्तु भगवान् महावीर ने इसे जीवन का आवश्यक अंग बताया है। उन्होंने तो विनय को धर्म का मूल-'विणयमूलो धम्मो' कहा है। विनय का लोकव्यवहार में अत्यधिक महत्त्व है। एक भी अविनयपूर्ण वचन कलह और क्लेश का वातावरण उत्पन्न कर देता है, जबकि विनय-नीति के पालन से संघर्ष की अग्नि शांत हो जाती है, वैर का दावानल सौहार्द में परिणत हो जाता है । विनय जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता की कुंजी है । लेकिन विनयनीति का पालन ५. उत्तराध्ययनसूत्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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