SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 548
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवान् महावीर की नीति | ५ भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति ___ भगवान् महावीर की विशिष्ट नीति के मूलभूत प्रत्यय हैं-~-अनाग्रह, यतना, अप्रमाद, उपशम अादि। समाज देश अथवा राष्ट्र का एक वर्ग अपने ही दृष्टिकोण से सोचता है उसी को उचित मानता है तथा अन्यों के दृष्टिकोण को अनुचित । वह उनके दृष्टिकोण का आदर नहीं करता, इसी कारण पारस्परिक संघर्ष होता है। आर्य स्कन्दक ने भगवान महावीर से पूछा-लोक शाश्वत है या प्रशाश्वत, अन्त सहित है या अन्त रहित ? इसी प्रकार के और भी प्रश्न किये । भगवान ने उसके सभी प्रश्नों का अनेकांत नीति से उत्तर दिया, कहा लोक शाश्वत भी है और प्रशाश्वत भी। यह सदा काल से रहा है, अब भी है और भविष्य में रहेगा, कभी इसका नाश नहीं होगा। इस अपेक्षा से यह शाश्वत है। साथ ही इसमें जो द्रव्य-काल-भाव की अपेक्षा परिवर्तन होता है, उस अपेक्षा से प्रशाश्वत भी है। इसी प्रकार भगवान ने स्कन्दक के सभी प्रश्नों के उत्तर दिये। इस अनेकांतनीति से प्राप्त हुए उत्तरों से स्कन्दक संतुष्ट हमा। यदि भगवान अनेकांत नीति से उत्तर न देते तो स्कन्दक भी संतुष्ट न होता और सत्य का भी अपलाप होता । सत्य यह है कि वस्तु का स्वभाव ही ऐसा है । वस्तु स्थिर भी रहती है, और उसी क्षण उसमें काल आदि की अपेक्षा परिवर्तन भी होते रहते हैं। आज का विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका है, तभी आईन्टीन आदि वैज्ञानिकों ने अनेकांत नीति की सराहना की है, इसे भगवान महावीर की अनुपम देन माना है, और शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के लिए इसे बहुत उपयोगी स्वीकार किया है। प्राइन्स्टीन का Theory of relativity तो स्पष्ट सापेक्षवाद अथवा अनेकांत ही है। यतना-नीति यतना का अभिप्राय है सावधानी। नीति के संदर्भ में सावधानी जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आवश्यक है। भगवान ने बताया है कि सोते, जागते, चलते, उठते, बैठते, बोलते-प्रत्येक क्रिया को यतनापूर्वक करना चाहिए। सावधानी पूर्ण व्यवहार से विग्रह की स्थिति नहीं पाती, परस्पर मन-मुटाव नहीं होता, किसी प्रकार का संघर्ष नहीं होता। आत्मा की सुरक्षा भी होती है। समता-नीति समता भाव अथवा साम्यभाव भगवान महावीर या जैन धर्म की विशिष्ट नीति है। प्राचार और विचार में यह अहिंसा की पराकाष्ठा है। भगवान महावीर ने प्राचार-व्यवहार की नीति बताते हुए कहा--- ३. भगवती २, ९ ४. दशवकालिक ४ धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीय है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy