SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 547
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ .. 57 . चतुर्य खण्ड /४ *kta.naar FRan AM Pay अचमाचम अनैतिक है तथा संवर नैतिक है। यह पाहत (अरिहन्त भगवान् तथा उनके अनुयायियों की) दृष्टि है। अन्य सब इसी का विस्तार है। जैन दृष्टि के इन मूल आधारभूत तत्त्वों के प्रकाश में अब हम भगवान् महावीर की नीति को समझने का प्रयास करेंगे। भगवान् महावीर के अनुयायियों का वर्गीकरण श्रमण और श्रावक इन दो प्रमुख वर्गों में किया जा सकता है। इन दोनों ही वर्गों के लिए भगवान् ने आचरण के स्पष्ट नियम निर्धारित कर दिये हैं। पहले हम श्रमणों को ही लें। श्रमणाचार में नीति श्रमण के लिए स्पष्ट नियम है कि वह अपना पूर्व परिचय-गहस्थ जोवन का परिचय श्रावक को न दे। सामान्यतया श्रमण अपने पूर्व जीवन का परिचय श्रावकों को देते भी नहीं, किन्तु कभी-कभी परिस्थिति ऐसी उत्पन्न हो जाती है कि परिचय देना अनिवार्य हो जाता है, अन्यथा श्रमणों के प्रति अाशंका हो सकती है। इसे एक दृष्टान्त से समझिये भगवान नेमिनाथ के शिष्य छह मुनि थे-अनीकसेन प्रादि। ये छहों सहोदर भ्राता थे, रूप रंग आदि में इतनी समानता थी कि इनमें भेद करना बड़ा कठिन था। दो-दो के समुह में वह छहों अनगार देवकी के महल में भिक्षा के लिए पहुंचे । देवकी :के हृदय में यह शंका उत्पन्न हो गई कि ये दो ही साधु मेरे घर भिक्षा के लिए तीन बार आये हैं, जबकि श्रमण नियम से एक ही दिन में एक घर में दो बार भिक्षा के लिए नहीं जाता। देवकी की इस शंका को मिटाने के लिए साधुनों ने अपना पूर्व परिचय दिया,' जो कि उस परिस्थिति में अनिवार्य था । इसलिए भगवान् ने साधु के लिए उत्सर्ग और अपवाद-दो मार्ग बताये हैं। उत्सर्गमार्ग में तो पूर्व परिचय साधक देता नहीं, लेकिन अपवाद-मार्ग में, यदि विशिष्ट परिस्थिति उत्पन्न हो जाय तो दे सकता है । यह अपवाद-मार्ग जैन साध्वाचार में नीति का द्योतक है । इसी प्रकार केशी श्रमण ने जब गौतम गणधर से भ. पार्श्वनाथ की सचेलक और भ. महावीर की अचेलक धर्मनीति के भेद के विषय में प्रश्न किया तो गणधर गौतम का उत्तर नीति का परिचायक है। उन्होंने बताया कि सम्यक ज्ञान दर्शन चारित्र तप की साधना ही मोक्ष मार्ग है । वेष तो लोक-प्रतीति के लिए होता है । इसी प्रकार के अन्य दृष्टान्त श्रमणाचार सम्बन्धी दिये जा सकते हैं, जो सीधे व्यावहारिक नीति अथवा लोकनीति से सम्बन्धित हैं। अब हम भगवान महावीर की नीति का विशिष्ट नीति का वर्णन करेंगे, जिस पर अन्य विचारकों ने बिल्कुल भी विचार नहीं किया है, और यदि किया भी है तो बहत कम किया है। १. अन्तगड सूत्र २. उत्तराध्ययन सूत्र १३/२९-३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy