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________________ • भगवान महावीर की नीति / ३ ४. कषाय (क्रोध, मान, कपट, लोभ) और ५. अशुभ योग (मन, वचन काय की निंद्य एवं कुत्सित वृत्तियां)। एक अन्य अपेक्षा से भी पाँच प्रमुख प्रास्रव हैं- १. हिंसा, २. मृषावादअसत्य भाषण, ३. चौर्य, ४. अब्रह्म सेवन और ५. परिग्रह। ___ स्पष्ट है कि ये सभी प्रास्रव अनैतिक हैं, समाज एवं व्यक्ति के लिए दुःखदायी हैं, अशान्ति, विग्रह और उत्पीडन करने वाले हैं। इन आस्रवों को-अनैतिकताओं को अनैतिक प्रवृत्तियों को रोकना, इनका आचरण न करना, संवर है-नीति है, सुनीति है। हिंसा आदि पांचों प्रास्रवों को पाप भी कहा जाता है, इसीलिए पाप अनैतिक है। किसी का दिल दुखाना, शारीरिक मानसिक चोट पहुँचाना, झूठ बोलना, चोरी करना, धन अथवा वस्तुओं का अधिक संग्रह करना आदि असामाजिकता है, अनैतिकता है। आज समाज में जो विग्रह, वर्गसंघर्ष, अराजकता आदि बुराइयाँ तीव्रता के साथ बढ़ रही हैं इनका मूल कारण उपर्युक्त अनैतिक आचरण और व्यवहार ही है। एक ओर धन के ऊँचे पर्वत और दूसरी ओर निर्धनता एवं प्रभाव की गहरी खाई ने ही वर्गसंघर्ष और असंतोष को जन्म दिया है, जिसके कारण मानव-मन में विप्लव उठ खड़ा हुआ है। इस पाप रूप अनैतिकता के विपरीत अन्य व्यक्तियों को सुख पहुँचाना, अभावग्रस्तों का प्रभाव मिटाना, रोगी आदि की सेवा करना, समाज में शान्ति स्थापना के कार्य करना, धन का अधिक संग्रह न करना, कटु शब्द न बोलना, मिथ्या भावण न करना, चोरी, हेरा-फेरी आदि न करना नैतिकता है, नीतिपूर्ण आचरण है। धर्मशास्त्रों के अनुसार बन्ध का अभिप्राय है-अपने ही किये कर्मों से स्वयं ही बंध जाना, किन्तु नीति के सन्दर्भ में इसका अर्थ विस्तृत है। व्यक्ति अपने कार्यों के जाल में स्वयं तो फंसता ही है, दूसरों को भी फंसाता है। जैसे मकड़ी जाला बुनकर स्वयं तो उसमें फंसती ही है, किन्तु उसकी नीयत मच्छरों आदि अपने शिकार को भी उस जाल में फंसाने की होती है और फंसा भी लेती है। इसी तरह कोई व्यक्ति झूठ-कपट का जाल बिछाकर लच्छेदार और खुशामद भरी मीठी-मीठी बातें बनाकर अन्य लोगों को अपनी बातों में बहलाता है, भुलावा देकर उन्हें वागजाल में फंसाता है, उन्हें वचन की डोरी से बांधता है, अकड़ता है तो उसके ये सभी क्रियाकलाप चाग्जाल बन्धन रूप होने से अनैतिक हैं। और नीतिशास्त्र के दृष्टिकोण से निर्जरा है, ऐसे वागजालों में किसी को न फंसाना, झूठ-कपट और लच्छेदार शब्दों में किसी को न बांधना। यदि पहले कषाय आदि के आवेग में किसी को इस प्रकार बन्धन में ले लिया हो तो उसे वचनमुक्त कर देना, साथ ही स्वयं उस बन्धन से मुक्त हो जाना। इसी बात को हेमचन्द्राचार्य ने इन शब्दों में कहा है आस्रवो भवहेतुः स्यात् संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाईती दृष्टिरन्यवस्या प्रपंचनम् ॥-वीतराग स्तोत्र | धम्मो दीयो -प्रास्रव भव का हेतु है और संवर मोक्ष का कारण है। दूसरे शब्दों में आस्रव | संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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