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चतुर्थ खण्ड / ७८
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अर्चमार्चम
साधक व्याकुलता की चरम सीमा पर पहुँच जाता है तब उसकी आत्मशक्ति चामत्कारिक प्रभाव दिखाती है । इसके उदाहरण अनेक पाये जाते हैं। यथा-सुदर्शन सेठ के लिए शूली का सिंहासन बनना, सती सुभद्रा की चालनी में पानी का आ जाना तथा चन्दनबाला की व्याकुल भक्ति से हथकड़ियों का टूट जाना आदि-आदि । सारांश यह है कि उपासना अगर यथोक्त विधि से की जाय तो वह निश्चय ही फल-प्रदायिनी बनती है। चिंतन-मनन, स्वाध्याय, तप, मंत्र-जाप, भजन-कीर्तन, पूजा-पाठ, सामायिक, व्रत एवं ध्यान आदि उपासना के अनेक अंग हैं। उपासक अपनी शक्ति व सामर्थ्य के अनुसार इनमें से जो कुछ कर सके, निस्वार्थ भाव से अन्तरमन को इनमें जोड़ते हुए करे तो वह निश्चय ही अपने लक्ष्य की प्राप्ति करता हुआ मानव-जीवन का पूर्ण लाभ उठा सकता है। सम्यक् रूप से की गई उपासना ऐसी अनुपम औषध है जो उपासक को जन्म, जरा और मरण के सम्पूर्ण दुःखों से सदा के लिए छुटकारा दिलाकर शाश्वत सुख की उपलब्धि कराती है।
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