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________________ स्यादवाद की लोकमंगल दृष्टि एवं कशनशैली 0 शान्ताकुमारी धर्मावत, एम. ए. "सत्य क्या है ?" यह एक प्रश्न है जिस पर हजारों हजार एवं लाखों लाख वर्षों से विचार होता आया है। इस प्रश्न पर विचार करनेवाला एकमात्र मनुष्य है। मानव जाति निरंतर सत्य की खोज करती रही है, सत्य को जानने के लिए उत्सुक रही है। आज भी सत्य का जिज्ञासु एक ऐसे चौराहे पर खड़ा है, जहाँ सभी प्रकार के प्राचार, विचार, बोली, देश वाले व्यक्तियों के आने-जाने का तांता लगा हुआ है । वहाँ आनेवाले प्रत्येक व्यक्ति से वह एक ही प्रश्न पूछता है -सत्य क्या है ? और प्रत्येक व्यक्ति अलग-अलग उत्तर देता हुआ आगे बढ़ जाता है । एक कहता है कि सत्य पूर्व में है तो दूसरा कहता है कि नहीं, सत्य पश्चिम में है। कोई कुछ और कोई कुछ कहकर अपने दायित्व का निर्वाह कर रहा है। इसका कारण यह है कि प्रत्येक व्यक्ति सत्य को अपनी दृष्टि से परखता है और जिस दृष्टि से देखता है, जिस रूप में देखता है, उसे ही सत्य मानने लगता है। परिणामतः उसके लिए झगड़ने लग जाता है कि 'नहीं नहीं, तुम सब झूठे हो, गुमराह हो, सत्य को नहीं पहचानते हो, अपनी बकवास बंद करो । सत्य तो मेरे पास है, प्रानो मैं तुम्हें सत्य को दिखाता हूँ।' इसका यह अर्थ हुआ कि सत्य बाजार में बिकनेवाली वस्तु है और वह कीमत देकर खरीदी जा सकती है, अथवा सत्य का भी नीलाम हो रहा है। विश्व में उसके सिवाय सत्य किसी के पास है ही नहीं। । प्राय: मानव मान लेता है कि वह जो कहता है, वही सत्य है । जो वह जानता है, वही सत्य है । मानव की इस मान्यता में सत्यदृष्टि नहीं, अपितु उसका अहंकार छिपा हुआ है। किसी को बुद्धि का अहंकार है तो किसी को धन का और किसी को प्रतिष्ठा का । परिणामतः उसने अपने अहंकार को ही सत्य का रूप दे दिया है और उसके लिए वादविवाद, संघर्ष करने तथा लड़ने और मरने मारने को भी तैयार हो जाता है। जो मेरा है वही सत्य है । यह मूल बीज है तो बहुत छोटा, लेकिन जब यह प्राग्रह का भूत सिर पर सवार हो जाता है तो विग्रह पैदा कर देता है। जिससे संघर्ष के स्वर और वैर-विरोध के विषैले वक्ष लहलहाने लग जाते हैं । श्रमण भगवान् महावीर ने एक दृष्टि दी, विचार दिया कि सत्य शाश्वत है, लेकिन यह मत कहो कि मेरा सत्य ही सत्य है। एकान्त प्राग्रह सत्य नहीं है और न वह सत्य का जनक है । जब तक यह दृष्टि नहीं हो जायेगी कि-'यत्सत्यं तन्मदीयम्' तब तक सत्य की खोज नहीं कर सकते । सत्य को पाने के लिए अनाग्रह की दृष्टि अपनानी पड़ेगी। अनाग्रहदृष्टि किसी पक्षविशेष से आबद्ध न होने का नाम है। जब अनाग्रहद्दष्टि होगी तो सत्य स्वयं प्रतिभासित हो जायेगा, उसकी प्राप्ति के लिए प्रयास, परिश्रम नहीं करना पड़ेगा। धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jaineluray.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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