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________________ HWARE Naarima Akoschatar. hinrasoi AMMTsbe Taranaam Malene चतुर्थ खण्ड /८० JANA are SE इस अनाग्रहदृष्टि का नाम ही स्याद्वाद-अनेकान्तवाद है। यह सत्य को अनंत मानकर चलता है। फलतः जहाँ भी जिस किसी से भी सत्य मिलता है, अनाग्रह एवं विनम्र भाव से उसे अपना लेता है। प्राग्रहशीलता आदि के बारे में भगवान महावीर के कथन का निष्कर्ष यह है कि जो अपने-अपने मत की प्रशंसा करते हैं और दूसरों की निंदा में तत्पर हैं और ऐसा करने में . ही पांडित्य समझते हैं वे इस संसार में चक्कर लगाते रहते हैं।' अनेकान्तदर्शन के अनुसार प्रत्येक सत् पदार्थ उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है, अर्थात् . पर्याय से उत्पन्न और विनष्ट होता हग्रा भी द्रव्य से ध्रव है। कोई भी वस्तु इसका अपवाद नहीं है । मौलिक तत्त्वों के बारे में उन्होंने सूत्र दिया-“उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा ध्रुवेइ वा" --तत्त्व उत्पत्ति विनाश और ध्रौव्ययुक्त है। पदार्थ रूप से रूपान्तरित होते हुए भी अपने अस्तित्व, स्थायित्व से विहीन नहीं हो जाता है। लोकव्यवहार का ताना-बाना भी इन त्रिपदों से गुंथा हुआ है। जैसे कि व्यक्ति व्यक्ति के रूप में एक है, स्थायी है अवश्य, लेकिन साथ जुड़ने वाले सम्बन्ध बनते और बिगड़ते रहते हैं। व्यक्ति पिता है, पुत्र है, भाई, भतीजा, साला, बहनोई, मामा आदि अनेक सम्बन्धों से जुड़ा हुआ है, जिनकी यथावसर अभिव्यक्ति होती रहती है । पुत्र की अपेक्षा पितृत्व की उत्पत्ति हो जाती है और पिता की अपेक्षा उसका पिता रूप गौण होकर पुत्ररूप की उत्पत्ति हो जाती है । लेकिन इन पिता और पुत्र दोनों रूपों में व्यक्ति अपने व्यक्तिरूप, ध्रौव्य से विहीन नहीं हो जाता है। व्यक्ति है, तभी तो उसके साथ जुड़ने वाले सम्बन्धों का उत्पाद, विनाश यथावसर हो सका है। लोक-व्यवहार में एक व्यक्ति के साथ अनेक सम्बन्धों का जुड़ना काल्पनिक नहीं है। हम अतीत की जीवन-परम्परा को छोड भी दें तो भी दर्तमानकालीन सौ वर्ष के सीमित जीवनकाल में भी अनेक सम्बन्धों की शृखला जुड़ी हई है। जैनसाहित्य में कुबेरदत्त और कुबेरदत्ता का पाख्यान प्रसिद्ध है, जो जन्मत: भाई-बहिन थे लेकिन भाग्य-दुर्भाग्य से अठारह सम्बन्ध वाले बन गये। वे नाते-सम्बन्ध भाई-बहिन, पति-पत्नी आदि से लेकर पिता-पुत्री आदि अनेक रूपों में प्रकट हुए । यद्यपि उन सम्बन्धों, धर्मों में विभिन्नता थी, लेकिन वे सभी अपेक्षाष्टि से घटित हुए। जब इन प्रतीतिसिद्ध नातों का अपलाप नहीं किया जा सकता तब अनन्त धर्मात्मक वस्तु में विद्यमान धर्मों के कथन के लिए अनेकान्तवाद-स्यावाद का विरोध कैसे सम्भव है ? अपनी ऐकान्तिक दृष्टि से हम कुछ भी मानले किन्तु सत्य को समझने के लिए वस्तु में अनन्त धर्मों की स्थिति को मानना ही पड़ेगा यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में, चिन्तन के प्रत्येक आयाम में हम परस्पर विरुद्ध दो स्थितियों के स्पष्ट दर्शन करते हैं। यह दोनों स्थितियाँ सापेक्ष हैं । एकान्त अस्ति या एकान्त नास्ति जैसा निरपेक्ष कुछ भी नहीं है । अतः 'हो' का प्रयोग करके सफल नहीं हो सकते । सफलता प्राप्ति के १. सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं । जे उ तत्थ विउस्सन्ति संसारे ते विउस्सिया ।।-सूत्रकृतांग १४१०२।२३ २. सद् द्रव्यलक्षणम् । उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र, अ०५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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