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(२) आधिदैविक या बुद्धिवाद
नेक व्यक्ति बुद्धि-जनित तर्क से सिद्ध होने वाली बात को सत्य समझते हैं और उसे ही मानते हैं । वे यह विचार नहीं करते कि विश्वास से मानी जाने वाली चीज तर्क से कैसे समझी जा सकती है ? मिठाई की मिठास अथवा चोट लगने से होने वाली पीड़ा कैसी होती है, या कितनी होती है, इसे किसी व्यक्ति के द्वारा बताए जाने पर विश्वास ही करना होता है, स्वाद या दर्द को तर्क से न तो समझाया जा सकता है और न ही समझा जा सकता है ।
एक बहुत ज्ञानी और दार्शनिक व्यक्ति अपनी धुन में मस्त सड़क पर चला जा रहा था कि किसी ने उसे पुकारते हुए कहा
"भाई साहब ! जल्दी से सड़क से परे हो जाइये, सामने से बिगड़ा हुआ हाथी श्रा रहा है जिसे महावत भी काबू में नहीं कर सका है, हटिये, अन्यथा जान को खतरा है ।" दार्शनिक महोदय ने नजर उठाकर देखा कि महावत अंकुश से हाथी को वश में करने का प्रयत्न कर रहा है । यह देखकर उन्होंने अपनी बुद्धि का प्रयोग करके तर्कपूर्वक विचार किया-
तृतीय खण्ड
"यह हाथी मुझे कैसे मार सकता है ? बिना छुए तो मारना संभव ही नहीं है घोर अगर छूकर मारता हो तो महावत उस पर बैठा है अतः स्पर्श होने पर पहले उसे ही मारना चाहिये | जब हाथी महावत को नहीं मार सकता तो मुझे कैसे मारेगा ? "
इस प्रकार विद्वान् दार्शनिक की जबर्दस्त तर्क - कसौटी पर हाथी का 'मार सकना ' सिद्ध नहीं हुआ और वह निश्चिततापूर्वक चलता रहा। किन्तु कुछ मिनिटों में ही उसकी तार्किक बुद्धि अपना सा मुँह लेकर रह गई और हाथी ने उसे अपने पाँव से कुचल दिया।
स्पष्ट है कि तर्क सत्य दिशा में अपने अहंकार के कारण बुद्धि को वितर्क बनते हैं ।
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चल सकता है तथा असत्य दिशा में भी । बुद्धिवादी अथवा कुतर्क में प्रवृत्त करके उपहास का पात्र
एक बार काका कालेलकर जब जेल में थे, उन्होंने देखा कि एक भाई को बंदरों से बड़ी चिढ़ थी । वह बंदरों को देखते ही उन्हें एक कोठरी में बंद करके मार-पीट किया करते थे । उन्हें निरंतर ऐसा करते देखकर एक दिन काका कालेलकर ने कहा
" आप इन बन्दरों को क्यों परेशान करते हैं ? इन्हें छोड़ क्यों नहीं देते ?"
"काका साहब ! ये तो मेरे दुश्मन हैं, इन्हें कैसे छोड़ दूं ।" व्यक्ति ने उत्तर दिया । कालेलकर ने चकित होकर पूछा:
"अरे! ये निर्दोष बंदर आपके दुश्मन कैसे हुए?"
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