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________________ दीर्घजीवन या दिव्यजीवन "अंग्रेज मेरे शत्र हैं और हम उन्हें बंदर कहते हैं, अतः ये भी मेरे शत्रु हैं।" काका कालेलकर ने उन सज्जन की तर्कशक्ति और देशभक्ति पर मन ही मन सिर पीट लिया और सोचा-‘ऐसे महान् व्यक्ति देश का कैसे भला करेंगे !' बंधुनो ! उक्त सज्जन की दलील कैसी झूठी, निस्सार, तथा निर्दोष प्राणियों को कष्ट पहुँचाने वाली थी। अाज ऐसे बुद्धिवादी व्यक्तियों की कमी नहीं है जो कुतर्कों का प्राश्रय लेकर अपना धर्म ही खो बैठते हैं। न वे धर्म पर विश्वास करते हैं और न ईश्वर पर, न वे पुनर्जन्म को मानते हैं और न ही कर्म फलों को। क्योंकि ये सब कुछ विश्वास से सिद्ध होते हैं और कुछ सुतर्क से। मनुष्य जब कुतर्कों की दिशा में बढ़ जाता है तब उसे सही मार्ग नहीं मिलता । कहा भी है:-- 'अणंता सुहेऊ अणंता कुहेऊ' । -सुतर्क अनन्त है और कुतर्क भी अनन्त हैं। इसलिये, जीवन को महत्त्वपूर्ण बनाने के लिये अगर बुद्धिवाद का सहारा लेना है तो मनुष्य को कुतर्क का आग्रह छोड़कर प्रास्था, विश्वास तथा सूतर्क के द्वारा अपनी जीवनदिशा निर्धारित करना चाहिये। (३) आध्यात्मिक या आत्मवाद प्राध्यात्मवाद अथवा आत्मवाद, जड़वाद का विरोधी है। विपरीत दिशा में जाने वाली दो नावों के समान ! जड़ वस्तुओं का त्याग प्राध्यात्मवाद का और उनका संग्रह जड़वाद का लक्ष्य है। जड़वस्तुओं को छोड़े बिना मनुष्य आध्यात्मिक क्षेत्र में कदापि प्रविष्ट नहीं हो सकता। इसका एकांत अर्थ यह नहीं है कि प्रत्येक व्यक्ति घर-परिवार सबको छोड़कर साधु बन जाए तथा जंगल में जाकर डेरा जमा ले। आध्यात्मिकता का अर्थ यह नहीं है कि संसार को छोड़ दिया जाय तथा निर्जन में रहकर ही साधना की जाय, अपितु निरासक्त भावना से है। अगर कोई व्यक्ति साधु बनकर जंगल में चला जाय, किन्तु तब भी उसके मन से त्याग का अहंकार, ईर्ष्या-द्वेष, छलकपट, प्रसिद्धि की भावना तथा कमंडलु और प्रासन का मोह न जाय यानी उनके प्रति भी प्रासक्ति बनी रहे तो समझना चाहिये कि वह संसार में ही है। और इसके विपरीत घर में रहकर भी अगर व्यक्ति पूर्ण निरासक्त भाव से कर्तव्यपालन करता हया आध्यात्मिकता की ओर बढ़े तो वह उसके लिये लाभदायक सिद्ध होगा। 'हितोपदेश' में बताया गया है: वनेऽपि दोषाः प्रभवन्ति रागिणां, गहेऽपि पञ्चेन्द्रियनिग्रहस्तपः। .. समाहिकामे समणे तवस्सी " ओ श्रमण समाधि की कामना करता है, वहीं तपस्वी है। 80% 91 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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