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तृतीय खण्ड
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अकुत्सिते कर्मणि यः प्रवर्तते,
निवृत्तरागस्य गृहं तपोवनम् ॥ रागियों को वन में भी दोष लग जाते हैं और वैरागियों को घर में भी पाँच इन्द्रियों का निग्रहरूप तप प्राप्त हो जाता है। जो अच्छे कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं, उन वैरागियों के लिये तो घर हो तपोवन के समान है।
श्लोक में यही बताया गया है कि शहर, वन अथवा स्थानविशेष से कोई अन्तर नहीं पड़ता, अगर भावनात्रों में राग न हो तो; निरासक्त व्यक्ति के लिये सभी स्थान अध्यात्म-भाव को पुष्ट करने वाले हैं । एक पाश्चात्य विचारक 'हेल्वेटियस' ने भी कहा है:
"By annihilating the desires, you annihilate the mind."
-इच्छाओं को शून्य करने के लिये तुम्हें मन को शून्य करना चाहिये ।
स्पष्ट है कि अगर मन में आसक्ति बनी रही तो घर द्वार छोड़ने से भी आत्मा का भला होने वाला नहीं है। आत्मा का भला जड़ वस्तुओं के प्रति विराग और उनका त्याग करने से होता है।
गुरु गोविन्दसिंह अध्यात्मवादी पुरुष थे। एक बार जब वे यमुना नदी के किनारे बैठे हुए थे, उनका एक धनी भक्त रघुनाथ नामक व्यक्ति उनसे मिलने पाया। कुशल-क्षेम पूछने के पश्चात भेंटस्वरूप दो कंगन उसने गुरुजी के चरणों में रख दिये। कंगन रत्नजटित होने के कारण मूल्यवान् थे।
गुरु गोविन्दसिंह उन्हें लापरवाही से अपनी तर्जनी अंगुली पर घुमाने लगे । एकाएक, एक कंगन यमुना में जा गिरा। यह देखते ही रघुनाथ व्यग्रता से नदी में कूद पड़ा । बेशकीमती कंगन की हानि उसे सह्य नहीं थी। किन्तु कई गोते लगाकर ढूंढने पर भी वह कंगन नहीं मिला और अंत में बदहवास तथा अत्यन्त दुःखी होकर वह पानी से निकल पाया। आकर बोला
"गुरुदेव ! बहुत प्रयत्न किया, पर कंगन नहीं मिला।" उसी क्षण गोविन्दसिंह जी ने दूसरा कंगन भी नदी में उछाल दिया और कहा"देख ! पहले वाला कंगन उस जगह गिरा था।"
रघुनाथ सन्न रह गया। इस बार वह कंगन निकालने के लिये नहीं दौड़ा । वह समझ गया कि गुरुजी ने मुझे शिक्षा देने के लिये ही कंगन फैंके हैं। रत्न-जटित प्रति मूल्यवान् कंगनों के लिये कुछ क्षणों तक उसका मन बेहाल रहा, लगा कि जैसे किसी ने उसके प्राणों को ही शरीर से खींचकर निकाल फेंका हो, किन्तु उसके पश्चात ही उसका मानस बदल
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