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________________ दीर्घजीवन या दिव्यजीवन गया और वह समझ गया कि, जब तक सुवर्ण को मिट्टी न समझा जाएगा, तबतक यह सुवर्णरूपी जीवन मिट्री के मोल का यानी मल्यरहित ही साबित होगा। कितनी भी मल्यवान क्यों: हों, इन जड़ वस्तुओं का मूल्य सफल जीवन से अधिक मूल्यवान् नहीं होता। प्रत्येक मानव को यही विचार करना चाहिये कि अगर जीवन को सुवर्ण जीवन बनाना है तो जड़ सुवर्ण के ढक्कन को हटाकर आत्मा के सत्यस्वरूप का दर्शन करना आवश्यक है। और ऐसा तभी हो सकता है जब व्यक्ति वित्तषणा, पुत्रषणा और लोकषणा, इन तीनों एषणाओं पर विजय प्राप्त कर ले। उसमें श्रीमंत, सत्ताधारी, दानवीर या धुरंधर विद्वान् कहलाने की चाह न हो, साथ ही साधु बनकर भी स्वयं को महात्मा, सिद्धपुरुष, धर्माचार्य, अथवा अध्यात्मयोगी के रूप में प्रसिद्ध होने की कामना न हो, तभी वह भौतिक आकर्षणों से और साधना-जनित सिद्धियों या लब्धियों की प्राप्ति की वेगवती इच्छाओं से दूर रह सकेगा। मनुष्य को भलीभाँति समझ लेना चाहिये कि साधुत्व का बाना पहनकर भी अगर वह आध्यात्मिक उड़ान भरने की कोशिश में रहेगा तो ख्याति-प्राप्ति के चक्कर में पड़कर ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा तथा अहंकार आदि से बच नहीं पाएगा और उसका, जीवन को उत्कृष्ट तथा महत्त्वपूर्ण बनाने का स्वप्न कभी पूरा नहीं होगा। और ऐसी स्थिति में वह चाहे जितने लम्बे समय का जीवन प्राप्त करले तथा तप और साधना में लगा रहे फिर भी गजसुकुमाल के समान जीवन का लाभ वर्षों जीकर भी प्राप्त नहीं कर सकेगा। इसलिये लम्बे जीवन की इच्छा छोड़कर मुमुक्ष की दृष्टि केवल आत्म-शुद्धि की ओर केन्द्रित होनी चाहिये। आत्मोत्कर्ष के लिये लम्बे समय की, घोर तप की अथवा पूजा-पाठ या साधना की अधिकता अनिवार्य नहीं है अपितु अनिवार्य है लक्ष्य-प्राप्ति के लिये बेचनी, व्यग्रता छटपटाहट और तीव्रतम लगन । यही सब बातें प्रात्मा को निर्मलता की सर्वोच्च श्रेणी पर पहुँचाती हैं तथा अत्यल्प काल में भी कर्मों के विशालसमूह को पूर्ण रूप से नष्ट करने में सक्षम बनती हैं। प्रात्मा शाश्वत सुख को प्राप्त होती है और फिर उसे संसार में नहीं आना पडता। यही जीवन की सफलता कहलाती है, जिसके बाद पुन: प्रयत्न नहीं करना पडता और न ही जीवनधारण करना पड़ता है। वे आत्माएँ धन्य होती हैं जो जीवन का लाभ उठा लेती हैं। 00 समाहिकामे समणे तवस्सी___ जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है। 93 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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