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________________ चतुर्थ खण्ड / ९६ जगत् के विद्वानों ने साहित्यिक जगत से परे किया है कि इनमें आध्यात्मिक बातें ही हैं साहित्यिकता नहीं। किन्तु जब गहरी दृष्टि से मैंने इस सूत्र का अध्ययन किया तो मुझे इसमें साहित्यिकता भी मिली । वर्तमान में प्रचलित साहित्यिक-समीक्षा के मापदण्डों में कला पक्ष की प्रधानता प्रायः अधिक है। अतः अब हमें सूत्रों एवं ग्रन्थों का साहित्यिक महत्त्व साहित्यजगत् के सामने रखना चाहिए । यह सूत्र भावपक्ष एवं कलापक्ष दोनों ही पक्षों में बड़े सशक्त एवं सामर्थ्य के साथ अपना स्थान रखता है। बाह्य वैभव कलापक्ष की समीक्षा प्रायः इन रूपों में की जाती है-रस, छन्द, अलंकार, भाषा, शैली, प्रतीक, विधान आदि । ये सारे रूप मिलकर कलापक्ष-बाह्य वैभव की सर्जना करते हैं। सभी का अपनाअपना अलग-अलग महत्त्व है। किसी भी रूप की हम उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। प्रस्तुत निबंध सम्पूर्ण कलापक्ष के रूपों को लेकर प्रस्तुत नहीं है। किन्तु मात्र 'अलंकर-रूप' को लेकर ही लिखा जा रहा है। अत: 'अलंकार-रूप' के अलावा शेष अन्य रूपों पर यहाँ विचार नहीं किया जाएगा ! उत्तराध्ययनसूत्र और अलंकार उत्तराध्ययन-सूत्र महाकाव्य नहीं है । वस्तुतः यह पार्ष-वाणी है। अलंकार की दष्टि से या भाषा वैभव को दृष्टि से यह सूत्र-बद्ध नहीं किया गया अपितु भाववैभव ही इसका प्रमुख प्राधार है। फिर भी जब अलंकार खोजने / शोधने की दृष्टि से इसका अवलोकन किया तो काफी बड़ी मात्रा में इसमें अलंकार मिले। यूं तो अलंकारों की संख्या सैकड़ों में मानी जाती है फिर भी यहाँ उन सभी अलंकारों की दृष्टि से शोधपूर्वक नहीं लिखा है। कुछ प्रमुख अलंकारों की ही शोध की है । वस्तुतः इसमें उपदेशात्मक, कथात्मक हिस्सा अधिक होने से उदाहरण अलंकार, दृष्टांत अलंकार प्रचुरता से मिले । साथ ही यमक, उपमा और रूपक तथा अन्य अलंकार भी इसमें काफी मिल सकते हैं। जहाँ तक मेरी दृष्टि गयी और जैसा अलंकार मुझे दिखा उसे ही यहाँ लिखा गया है। यह प्रथम प्रयास है कि जैन सूत्र पर अलंकार की दृष्टि से कुछ शोधपूर्वक लिखा जाए । अत: चाहिये जितनी प्रौढता इस निबंध में नहीं आ पाई फिर भी जैसा बन पाया, लिखा है। अब क्रमश: ३६ ही अध्ययनों पर अलंकार अभिव्यक्त करने वाली गाथाएँ यहाँ पर प्रस्तुत हैं। अध्ययन १–गाथा ४-५-१२-३७-इन गाथाओं में अविनीत शिष्य को क्रमश: 'जहाँ सुणी पूइ-कण्णी'४ सड़े कान की कुतिया, "विट्ठ भुजइ सूयरे' विष्ठाभोजी सूअर, 'गलियस्से१२ गलिताश्व-अड़ियल अश्व का उदाहरण दिया गया है। तथा विनीत शिष्य को 'रमए पंडिए सासं, हयं भट्ट व वाहए' गुरु पंडित शिष्यों पर शासन करता हा इस प्रकार से पानंद प्राप्त करता है जैसे उत्तम अश्व का शासन करने वाला वाहक ! अतः उदाहरण और उपमा के साथ ही इन गाथानों में पुरुषावृत्ति अलंकार भी है। साथ ही १२ वी गाथा में 'पुणो' शब्द तथा ३७ वी गाथा में 'बाहए' शब्द दो-दो बार आया है अतः यमक अलंकार भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgi
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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