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द्वितीय खण्ड / ५८ (१२) जरूरतमंदों का ख्याल रखें । अन्य भी ऐसे अनेक शुभ कार्य और निष्काम तपस्या करें। ... (१३) दहेज न लेना न देना ।
(१४) मृत्यु-भोज, बाल-विवाह, अनमेल विवाह आदि कुरीतियों को दूर . किया जाए।
(१५) संग्रहवृत्ति से बचें।
(१६) व्यक्ति सामाजिक प्रगति-पथ पर चलते हुए अन्य लोगों की प्रगति में ही अपनी प्रगति समझे। (१७) आत्मकेन्द्रित न होकर लोक-कल्याण की ओर उन्मुख हों--
व्यक्ति जब प्रात्मकेन्द्रित होता है तब समस्या बन जाता है ।। पैसे को बाँट दो वरदान बन जाएगा
प्यार को बाँट दो भगवान बन जाओगे ।। १४. हमारे युवावर्ग को अपने सन्देश में क्या कहना चाहेंगी? - आध्यात्मिक जीवन के लिए महावीर के सिद्धान्तों को अपनाना चाहिये एवं अपने कर्तव्य के प्रति सतर्क एवं जागरूक रहना चाहिए। अध्यात्म एवं धर्म के स्वरूप को समझते हुए सन्मार्ग पर चलना चाहिए। अपने माता-पिता एवं बड़ों को आदर देते हुए अपने अधिकारों के साथ कर्तव्य का बोध भी करना चाहिए । युवा पीढ़ी यदि ज्ञान और क्रिया में सामंजस्य स्थापित करना सीख जाये तो भविष्य उज्ज्वल होगा। १५. प्राचीन जमाने में भी दहेज चलता था और अभी भी चलता है। दोनों __ में क्या अन्तर है ? विस्तार पूर्वक चितन दें।
पहले दहेज उपहार का रूप था, उसके साथ विवशता नहीं थी। प्रत्येक पिता अपनी बेटी को विदा के समय अपनी समर्थता के अनुसार कतिपय बस्तुएँ दे देता था। आज स्थिति विषम है। दहेज ने विवाह जैसे पवित्र बंधन को व्यापार बना दिया है। यही कारण है कि नारी जीवन के सुख-स्वप्न दहेज की ज्वाला में जल रहे हैं। उसकी माँग में सिन्दूर के स्थान पर दुर्भाग्य की राख भर रही है। नारी जीवन की परख उसके गुणों की कसौटी पर नहीं, धन के आधार पर की जा रही है। युवा पीढी इस दिशा में दढ संकल्प लेते हए इस दानव का विरोध करे अन्यथा हर प्रांगन में हरी-भरी फसलें झुलसेंगी। १६. आपने अपनी संयम की दीर्घ यात्रा में अनेक बड़े-२ संतों एवं आचार्यों के
दर्शन किये, उनके जीवन का आप पर क्या प्रभाव पड़ा ?
सच ही है मैंने अपने जीवन में अनेक सन्त महात्माओं के दर्शन किये। उनमें से सबसे अधिक प्रभाव मेरे पूज्य पिता श्री मांगीलाल जी म. सा. का रहा है। वे स्वभाव से अत्यधिक सरल, उदारचेता और दयालु प्रकृति के थे। साथ ही में
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