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________________ योग क्यों ? | २३१ -"यह जीवन भव-ताप से जल रहा है । इस संसार में हम बैठकर एक दूसरे की कराहटें सुनते रहते हैं, यहाँ रोग और जरा है, यहाँ यौवन शनैः शनैः रिसता रहता है। यहां पर सोचना मात्र दुःख से भर जाना है, निराशाओं से दब जाना है।" जीवन की इस भयावह स्थिति में मनुष्य क्या करे ? क्या वह इसी प्रकार सतत दुःख की ज्वाला में जलता रहे या इससे मुक्ति का कोई उपाय सोचे ? आखिर, अपना उद्धार तो उसे अपने आप ही करना है, 'उद्धरेदात्मनाऽऽत्मानं ।' मनुष्य को यदि इस स्थिति से छुटकारा मिल सकता है तो वह केवल उसकी योगमय स्थिति से ही मिल सकता है। यदि वह अपने क्रिया-कलापों को योग से समन्वित करे तो निश्चित रूप से वह प्रानन्द की प्राप्ति कर सकता है। भगवान कृष्ण का आदेश उसे शिरोधार्य होना चाहिए-'योगस्थः कर कर्माणि ।" पर पहले उसे जानना चाहिए कि 'योगस्थ' होने का क्या अर्थ है। संसार के द्वन्द्वों का अस्तित्व इसलिए नहीं मिट सकता क्योंकि वे एक प्रकृति-सत्ता के अंग हैं, हाँ, यदि हमारा दृष्टिकोण बदल जाये तो कम से कम हमारे लिए उनका कोई अस्तित्व नहीं रहेगा। दृष्टिकोण का यह परिवर्तन ही हमारे प्रात्म-विकास का प्रथम सोपान है। योग की प्रक्रिया से हम न केवल सुखी होते हैं अपितु इसके सतत अभ्यास से हमारे जीवन में एक विशेष प्रकार की भास्वरता आती है। इसलिए सबसे पहले मनुष्य को चाहिए कि वह अपने को जाने, पहचाने-'आत्मानं विद्धि'। जब वह अपने को जान जायेगा तो उसे सही 'स्थिति' का ज्ञान हो जायेगा। वह अज्ञानी इसलिए है क्योंकि उसका चित्त विभिन्न क्लेशों (मलों) से प्रावृत्त है। जब इस मलिनता को वह पहचान जायेगा तो उसके प्रक्षालन का यत्न करेगा। जब इन अशुद्धियों का परिहार हो जायेगा तो वह प्रात्मा में "स्थित' हो जायेगा। अतः मनुष्य सबसे पहले अपने 'स्वरूप' को जाने, शरीर को जाने, चित्त को जाने, आत्मा को जाने । इस प्रक्रिया में योग उसकी सहायता कर सकता है। पर योग है क्या? क्या मात्र व्यायाम, वजिश अथवा जिम्नास्टिक्स का नाम योग है ? क्या केवल ध्यान का नाम योग है ? क्या किसी चिकित्सापद्धति का नाम योग है ? क्या भजन, कीर्तन, सन्ध्या-उपासना का नाम योग है ? ये प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि आज के इस युग में योग के सम्बन्ध में सही 'समझ' का प्रायः अभाव है। योग की यत्र-तत्र-सर्वत्र लोकप्रियता तथा व्यापक प्रचार-प्रसार के बावजूद भी योग का वास्तविक अर्थ कितने लोग जानते हैं। यह स्थिति योग तथा हमारे दोनों के लिए अहितकर है। सही अर्थों में योग 'अनुशासन' का ही नाम है। सभी तरह का अनुशासन-शारीरिक, मानसिक, नैतिक एवं आत्मिक । योग के सतत अभ्यास से हमें न केवल शारीरिक निरोगता, मानसिक स्वस्थता, नैतिक पुष्टता और पात्मिक-सम्पूर्णता प्राप्त होती है अपितु इसके द्वारा हम एक विशेष 'जीवन-दृष्टि' विकसित करते हैं। यही जीवन-दृष्टि हमारे दुःख को मिटा सकती है, हमें सुखी बना सकती है, हमें अपने गन्तव्य तक पहुँचा सकती है। इस 'दृष्टि' के लिए हम क्या करें ? इस प्रश्न का उत्तर है कि हम योग का मार्ग अपनायें। यह मार्ग सतत साधना का मार्ग है, कठिन पथ है; कहा गया है "क्षुरस्य धारा निषिता दुरत्यय दुर्ग पथस्तत्कवयो ववन्ति ।" योग (प्रात्म-साक्षात्कार) का मार्ग अत्यन्त दुर्गम है, इसे प्रात्मदर्शी लोग छुरे की धार पर चलने के सदृश बतलाते हैं। पर, प्रात्म-विकास का कोई अन्य विकल्प नहीं। मनुष्य को चाहिए कि वह उपनिषद् के प्राप्त वचनों को न भूले आसनस्थ तम आत्मस्थ मम तब हो सके आश्वस्त जम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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