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योग क्यों? 0 डा. नरेन्द्र शर्मा 'कुसुम'
अर्चनार्चन
यह संसार दुःखालय है। दु:ख मनुष्य की चिन्तन नियति है। दुःख के बीच मनुष्य सुख की तलाश में कस्तूरीमृग की तरह भटकता रहता है। कभी वह शारीरिक एवं भौतिक पदार्थों में सुख ढूंढता है, कभी वह अपनी अनन्त इच्छात्रों की तृप्ति का निष्फल उपाय खोजता है। पर उसे वास्तविक सुख या प्रानन्द कब मिल पाता है और फिर उसे इस प्रकार की भ्रामक खोज में सुख मिल भी कैसे सकता है क्योंकि कठोपनिषद् में कहा गया है, "न वित्तन तर्पणीयो मनुष्यः।" और इच्छात्रों को भोग से तृप्त करने का श्रम तो मात्र एक छलावा है । मनुस्मृति में कहा गया है
न जातु काम: कामानामुपभोगेन शाम्यति ।
हविषा कृष्णवमव भूय एवाऽभिवर्धते ॥ -"मनुष्य की कामनायें भोग करने से तृप्त नहीं होतीं किन्तु जैसे अग्नि की ज्वाला घृत डालने से बढ़ती है उसी प्रकार कामनाएँ भोग करने से और भी बढ़ जाती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि दु:खों की निवृत्ति सांसारिक पदार्थों से नहीं हो सकती, सांसारिक पदार्थों के भोग से तृष्णा वढ़ती है," सुख शान्ति की प्राप्ति नहीं हो सकती। भर्तृहरि ने इस बात को बड़े स्पष्ट ढंग से कहा है
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता
स्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याता
स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः॥ --"भोगों को हमने नहीं भोगा, किन्तु हम ही भोगे गये । तप नहीं तपे गये, किन्तु हम ही तपे गये, समय नहीं कटा, किन्तु हम ही कट गये, सचमुच तृष्णा जीर्ण नहीं हुई, हम ही जीर्ण हो गये।" इस प्रकार संसार में दुःख से कोई मुक्त नहीं। अंग्रेजी उपन्यासकार हार्डी का कथन भी इस बात को दोहराता है, "Happiness is an occasional episode in the general drama of pain." दु:ख के सामान्य नाटक में सुख केवल एक प्राकस्मिक घटना है। कवि कीट्स की ये पंक्तियाँ कितनी सही हैं
The weariness, the fever, and the fret.
Here where, men sit and hear each other groan Where palsy shakes a few, sad, last grey hairs Where youth grows pale, and spectre-thin, and dris,
Where but to think is to be full of sorrow And leaden-eyed despairs;
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