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________________ सम्पूर्ण संस्कृतियों की सिरमौर - भारतीय संस्कृति सम्प्रदायों के अनुयायी आगे आएँगे, किन्तु हिन्दुस्तान के अथवा हिन्दुत्व के नाम पर सभी सम्मिलित रूप से आगे बढ़ेंगे, जिनमें जैन, सनातनी, श्रार्यसमाजी, सिक्ख और बौद्ध आदि सभी होंगे । मेरे कहने का अभिप्राय यही है कि अपनी संस्कृति को चाहे हिन्दू संस्कृति कहा जाय या भारतीय संस्कृति दोनों के अर्थों में कोई अन्तर नहीं है । विभिन्न धर्मों के बाह्य आचारों में अथवा आत्म-साक्षात्कार या भगवत्प्राप्ति के लिये की जाने वाली साधना पद्धतियों में अन्तर होता है किन्तु लक्ष्य प्राप्ति के विषय में नहीं । अपनी संस्कृति पर आस्था और श्रद्धा रखने वाला प्रत्येक व्यक्ति हिंसा, क्रोध, कपट, अन्याय, अनीति तथा क्रूरता आदि श्रात्मा को मलिन करने वाले दोषों को नष्ट करके उसमें मैत्री, करुणा, अहिंसा, न्याय, नीति, प्रेम, दया तथा क्षमा आदि गुणों की स्थापना करेगा । आत्मा को निर्मल करनेवाले ये समस्त गुण किसी धर्म या सम्प्रदाय के घेरे में नहीं रहते अपितु मानवमात्र को संस्कृत करते हैं और इसीलिये अगर भारतीय संस्कृति के अनुपम प्रादर्शों को अन्य देश वासी अपनाते हैं तो वह जगत् की संस्कृति भी बन सकती है । वे आदर्श और और विशेषताएँ क्या हैं, संक्षिप्त में उन्हें ही बताने जा हूँ । हमारी भारतीय संस्कृति की कुछ विशेषताएँ (१) समस्त प्राणियों के प्रति समानता एवं प्रेमभाव समस्त जीवों को अपने समान समझना और उनके प्रति प्रेम की भावना रखते हुए तदनुसार व्यवहार करना, यह हमारी भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता है जो अन्य किसी भी संस्कृति में इतने पूर्ण और सच्चे रूप में नहीं पाई जाती । 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना भारतीय संस्कृति की प्राण है जो मनुष्य के रग-रग में बसी होने के कारण उसके दैनिक जीवन के प्रत्येक पल को प्रभावित करती है । हम निस्संकोच यह भी कह सकते हैं कि हमारी संस्कृति की इस महान् विशेषता में अन्य सभी विशेषताएँ गर्भित हैं अतः केवल इसे बताने पर भी भारतीय संस्कृति का सम्पूर्ण वर्णन हो जाता है। यहाँ का मानव केवल दूसरे मनुष्य की श्रात्मा को ही अपनी आत्मा के समान नहीं वरन् पशु-पक्षी आदि प्राणियों को भी अपने समान मानकर उन्हें कष्ट पहुँचाना नहीं चाहता । उदाहरण स्वरूप हमारे धर्मग्रन्थ में वर्णन है— धर्मरुचि नामक मुनि को नागश्री नामक ब्राह्मणी ने कड़वे तूम्बे का शाक भिक्षा में में दे दिया जो विष का कार्य करने वाला था । अतएव उनके गुरुदेव ने वह शाक एकान्त फेंक देने की आज्ञा दी । धर्मरुचि उसे लेकर गाँव के बाहर निर्जन में पहुँचे पर यकायक उन्हें कुछ विचार आया और उन्होंने शाक की एक बूँद जमीन पर डाली । कुछ ही क्षणों में शाक में डली हुई मिठास के कारण अनेक चींटियाँ उस बूंद पर आ गईं और निष्प्राण हो गई । यह समाहिकामे समणे तवस्सी जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी Jain Education International 79 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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