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नहीं रखते, इसी प्रकार प्रत्येक सच्चे संत व साधु-पुरुष प्राणिमात्र के प्रति समभाव रखते हैं तथा जाति-पांति अथवा अमीरी-गरीबी के भेद-भाव से रहित रहकर प्रत्येक जिज्ञासु को आत्म-कल्याण का मार्ग बताते हैं उन्हें सद्गुणों के संचय की प्रेरणा देते हैं।
'सूत्रकृतांग' में कहा गया है:
"सव्वं
जगं तु
समयाणुपेही, पियमध्वियं करस वि तो करेजा ।"
समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है और न किसी का अप्रिय । अर्थात् समदर्शी सज्जन पुरुष अपने-पराए, प्रिय या अप्रिय की भेद-बुद्धि से परे रहते हैं।
भगवान् महावीर के भक्त सुदर्शन के समभाव ने ही प्रतिदिन छः पुरुष और एक स्त्री की हत्या करनेवाले पापी अर्जुन माली को साधु-पुरुष बना दिया और इसी समत्व-भाव से परिपूर्ण महात्मा बुद्ध ने मनुष्यों की अंगुलियों की मालाएँ बनाकर पहनने वाले हत्यारे अंगुलिमाल को श्रमण बनाया। अगर वे पापियों से घृणा करते होते तो ऐसा होना संभव नहीं था ।
तृतीय खण्ड
इतना ही नहीं, सदैव ही समभाव को अनुपम दिव्य गुण माना गया है । प्रत्येक समय में महापुरुषों ने इस गुण को धारण करने की प्रेरणा दी है। भगवान् महावीर और बुद्ध से भी २०० वर्ष पूर्व पैलिस्टाइन में जरनिया नामक एक महान् शांति प्रिय एवं समभावी व्यक्ति हुआ, जिसने यही उपदेश २०० वर्ष पूर्व लोगों को दिया था ।
जरनिया एक धर्म-गुरु का पुत्र था, ग्रतः मंदिर में ही रहता था। एक बार उसके मंदिर में किसी धार्मिक उत्सव का आयोजन हुआ। उसने घूमते-घामते आकर देखा कि मंदिर के अन्दर अनेक राजा-महाराज तथा श्रीमन्त और श्रेष्ठी बैठे हुए हैं और उस भयंकर शीतकाल में अनेक प्रभावग्रस्त दीन-दुःखी स्त्री-पुरुष तथा अनाथ बच्चे बैठे ठिठुर रहे हैं। उनके तन पर
पूरे वस्त्र भी नहीं हैं और न ही सर्दी से कुछ बचाव के लिये सिर पर छत ही है !
यह देखकर जरनिया अत्यन्त क्षुब्ध हो गया और उसने लागवबूला होकर उन अमीरों से कहा
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"आप सब राजा-महाराजा, सेठ श्रीमन्त और रईस मंदिर के अन्दर सुख से विराजमान हैं, किन्तु आप सब के काले कारनामों के साक्षी अधनंगे गरीब नर-नारी और बालक मंदिर के बाहर खुले मैदान में ठिठुर रहे हैं। जिनके पास न तन ढकने को पूरे वस्त्र हैं और न पेट, भरने के लिये अन्न ।”
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