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________________ संत और पंथ किन्तु इसके विपरीत विवेकी और मृदुभाषी संत की संगति पाकर बुरा मनुष्य भी अच्छा बन जाता है । यथा-एक संत का उपदेश सुनने के लिये एक कृपण व्यक्ति भी आया । प्रवचन सुनकर वह प्रभावित हुआ और उसने एक रुपया भेंट किया। महात्माजी ने उस व्यक्ति को बुलाकर अपने समीप बैठा लिया। यह देखकर उस कंजूस व्यक्ति ने कह दिया "महात्माजी ! क्या आपने अभी तक धन का लोभ नहीं छोड़ा, जो रुपया देने पर मुझे अपने समीप बिठाया है। पैसा देनेवालों का आदर तो लालची व्यक्ति ही करते हैं।" महात्माजी बड़े अनुभवी किन्तु सरल और सीधे थे। उन्होंने उत्तर दिया "बंधू ! मुझे तो धन का तनिक भी लोभ नहीं है, किन्तु तुमने आज प्रथम बार एक रुपये का त्याग किया है, अतः अंशत: त्यागी मानकर ही मैंने तुम्हें अपने निकट बैठाया है। याद रखो ! अगर इस त्याग-वृत्ति को बढ़ाते जानोगे तो वह क्षण भी कभी आएगा, जब तुम्हें परमात्मा अपने समीप बिठाएँगे। यह संत के सीधेपन का सुन्दर उदाहरण है। उन्होंने टेढ़े भक्त को भी सीधे पथ पर बढ़ा दिया। (४) संत और पंथ सभी के लिए समान होते हैं प्रत्येक पथ या मार्ग सभी पथिकों को समान भाव से मंजिल की ओर बढ़ने देता है। वहाँ किसी के लिये किसी प्रकार का पक्षपात अथवा भेद-भाव नहीं होता। मार्ग पर चाहे अमीर अपने लवाजमे के साथ चले या दीन-दरिद्र अपनी गठरी लिये हुए, चाहे उस पर शक्तिशाली पहलवान चले अथवा पंगू अपनी वैसाखी के द्वारा, चाहे वद्ध चले या बालक, और चाहे विद्वान संत-महात्मा चलें या निरक्षर भट्टाचार्य, मार्ग सभी को समान सहयोग देता है । न वह राजा-महाराजाओं के लिये स्वयं को साफ़ और चिकना बनाता है और न ही गरीब, पापी या किसी अपराधी को काँटा चभाता है या नुकीले पत्थरों से उसके पैरों को घायल ही करता है। पथ पर चलने वाला स्वयं सावधानी कम या अधिक रखे यह उसी पर निर्भर है, किन्तु पथ सभी के लिये समान रहता है। ठीक इसी प्रकार सच्चे संत भी समदृष्टि होते हैं। अपने समीप आनेवाले किसी रईस का वे हर्षित होकर स्वागत नहीं करते और न ही दीन, दुखी या दरिद्र की भक्ति के प्रति लापरवाही अथवा उपेक्षा ही रखते हैं। अपने अनुभव और अपने ज्ञान को वे मुक्तरूप से सभी को समान भाव से देते हैं। जिस प्रकार सूर्य अपना प्रकाश प्रदान करने में, पवन शीतलता देने में और नदी-तालाब अपने जल से लोगों की पिपासा शांत करने में स्वार्थ या पक्षपात का भाव Ling... समाहिकामे समणे तवससी ओ भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वीर 43 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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