SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संत और पंथ "लज्जा नहीं पाती आप लोगों को ? कहाँ से आपने पैसा इकट्ठा किया ? इन गरीबों को लटकर और इनके खुन का पसीना करके ही तो! निकल जाइये मेरे इस मंदिर से ! आप जैसे खनियों और बेईमानों के लिये मेरे मंदिर में जगह नहीं है। जाइये ! चले जाइये !! यहाँ वे आकर बैठेंगे जो भगवान के सच्चे भक्त होने के कारण इस कड़ाके की ठंड में भी बाहर बैठे हैं। आप लोगों की तरह उन्हें धन का अहंकार नहीं है, न ही स्वागत-सत्कार प्राप्ति की भावना ही है। वे केवल भक्तिवश बाहर तकलीफ़ उठाकर भी बैठे हए हैं। किसी प्रकार के स्वार्थ या किसी चाह के आधीन होकर नहीं।' जरनिया की ऐसी कटु बातें सुनकर सब अमीर और राजा लोग घबरा गए । बड़ी खलबली मच गई। यही नहीं, वहाँ स्थित सारे धर्मगुरु भी स्तब्ध रह गए और मन ही मन जल उठे । जरनिया के प्रति उनके क्रोध और द्वेष का पारावार नहीं रहा। क्योंकि मंदिरों का खजाना या भंडार भरने वाले अमीर ही थे। उन्हें खुश रखने में ही उनका अपना भला था। इस कर्तव्य को वे निबाह भी रहे थे, किन्तु सत्यवादी जरनिया ने सब गुड़-गोबर कर दिया । मारे क्रोध के एक बार उन धर्म के ठेकेदारों ने जरनिया को ज़हर भी पिला दिया किन्तु दृढ़ आस्था और सच्चे धर्मभाव से प्रोत-प्रोत अपूर्व शक्ति का धनी जहर को पचा गया। वह जब तक जीवित रहा, निर्भय होकर अपने विचारों का प्रचार करता रहा। जरनिया ने महावीर एवं बुद्ध से दो सौ वर्ष पूर्व जो सत्य कहा था तथा समभाव की प्रेरणा दी थी, वह आज भी ग्रहणीय है किन्तु कहे कौन ? आज स्थानक में यदि जरनिया के समान स्पष्ट कह दिया जाय तो आपको कैसा लगेगा ? पाप ही नहीं, हम साधु-साध्वी भी अगर समाज को सदुपदेश या सदाचार की शिक्षा दिये बिना ही भिक्षा लेते हैं तो हमारा स्थान भी आपके समान ही रहेगा। बिना श्रम किये, बिना समाज की सेवा किये और बिना साधु-वत्ति को समझे अगर साधु पकवानों का भोग लगाते रहें, आनन्द से भांग-गांजा पीते रहें और चरम के नशे में धुत्त रहकर तमाख का धुआँ उड़ाते रहें तो क्या वे चोर-उचक्के नहीं कहलाएँगे? समाधि-भाव, समत्व-भाव या त्याग उनसे कोसों दूर रहेगा। वे सबके लिये समान न रहकर टेढे, स्वार्थी और मार्ग-दर्शक न बनकर स्वयं तो संसार-सागर के अतल में जाएंगे ही साथ ही अपने अमीर और प्रशंसा के आकांक्षी, चाटकार भक्तों को भी ले जाएंगे। इसीलिये सन्त को सबके लिये समान होना चाहिये। (५) संत से मिलन और पंथ पर गमन करने से ही सच्चाई ज्ञात होती है बन्धुनो ! हमें सदा पद-यात्रा ही करनी पड़ती है, अतः पथों के विषय में हमें आप लोगों की अपेक्षा अनेक गुना ज्यादा अनुभव होता है। विहार करते समय मार्ग में छोटे-छोटे गाँव और उनसे भी छोटी बस्तियाँ जिन्हें 'ढाणी' कहते हैं, पाती हैं और हमें प्रायः ऐसी जगहों समाहिकामे समणे तवस्सी " जो भ्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी है। +C 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy