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________________ • अ जा च न . तृतीय खण्ड ले एक क्ल ब पर ठहरना पड़ता है, क्योंकि एक-एक कदम नापते हए आखिर प्रतिदिन कितने माइल चला जा सकता है ? छः, आठ अथवा नौ-दस । तो मैं बता यह रही थी कि सदा ही एक स्थान से अगले स्थान पर पहुँचने के लिये मार्ग की जानकारी करनी पड़ती है, छोटे गाँवों के बीच में कच्चा रास्ता तो होता ही है, मील के पत्थर भी नहीं होते। अत: गाँव के लोग जो कच्चे-पक्के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर भी सरलता से और अति-शीघ्र चलने के आदी होते हैं, हमें भी रास्ता बताते हुए कह देते हैं "इस रस्ते से पधार जाइये महाराज जी ! थोड़ा सा चलने पर ही आगे बस्ती प्रा जाएगी।" हम भी कभी-कभी उनकी बात मानकर शॉर्ट-कट-छोटा रास्ता-समझकर चल पड़ते हैं; किन्तु कुछ चलने पर ही पता चलता है कि कितना कंटकाकीर्ण तथा नुकीले पत्थरों से भरा हा बीहड़ मार्ग है जिस पर नंगे पैर चलने से कितनी तकलीफ और परेशानी होती है। दूसरे वही मार्ग, जिसे गाँववाले थोड़ा सा कहते हैं, कितने माइल निकलता है, वह हमें ही अन्दाज़ हो पाता है। तभी कहा है कि किसी के कह देने से नहीं वरन स्वयं चलने पर ही पथ की सच्चाई यानी वह कैसा है, इसका अनुभव हो सकता है। ठीक इसी प्रकार संत से मिलने पर और उनका समागम करने पर ही जाना जा सकता है कि वे सच्चे संत हैं या नहीं, याकि तरण-तारण बनने की क्षमता रखते हैं या नहीं। जैसा कि मैंने पहले कहा था, आज के समय में कदम-कदम पर साधु-भेषधारी संत नज़र आते हैं। उनके शरीर पर गेरुए अथवा अन्य रंग के वस्त्र होते हैं, मस्तक पर जटा-जूट बँधा होता है। अनेक प्रकार की मालाएँ होती हैं तथा छापे-तिलक अथवा भस्म भी रमाई देखी जाती है। बड़े-बड़े मठों, मन्दिरों, आश्रमों आदि में उनका निवास रहता है । वे अपने घर को त्यागकर संत-महंत की उपाधि धारण कर लेते हैं, किन्तु उनका त्याग कैसा होता है यह तो उनके समागम से और संत-वृत्ति की कसौटी पर कसने से ही पता चल पाता है। जब तक मन और ज्ञानेन्द्रियों को वश में नहीं किया जाता और वासनाओं का त्याग नहीं होता तब तक घंटों अग्नि की आतापना लेने से, शूलों की शय्या पर सोने से अथवा पहरों गंगा के जल में खड़े रहने पर भी मन की शुद्धि नहीं हो सकती । इसके विपरीत शायर 'जौक' का कथन है सरापा पाक है, धोये जिन्होंने हाथ दुनिया से। नहीं हाजत की वह पानी बहाएँ सर से पावों तक ॥ . अर्थात-जिन्होंने संसार की भोगेच्छानों से हाथ धो लिया है, वे आपाद-मस्तक स्वयं शुद्ध हो गए हैं, अतः ऐसे संत व त्यागियों को सिर से पाँव तक पानी बहाकर स्नान करने की जरूरत नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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