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संत और पंथ
हो गए।
वस्तुत: सच्चा साधुत्व बाह्य क्रिया-कांड पर निर्भर नहीं होता और न ही जातिपाँति के प्राधीन होता है। भगवान केवल सच्ची तथा अभिन्न भक्ति को ग्रहण करते हैं। संत नामदेव ऐसे ही ईश-भक्त और उनके अनन्य अनुरागी थे।
नामदेव के पिता दामाशेट जाति के 'छीपा' थे। इन्हीं के घर नामदेव ने जन्म लिया । बाल्यावस्था से ही वे प्रभु-भक्ति में पूरी तरह रंग गए थे। बड़े होने पर वे अपना गाँव छोड़कर पण्ढरपुर में रहने लगे और पण्ढरीनाथ की भक्ति में निमग्न हो गए।
कहावत है-एक बार शिवरात्रि के दिन नामदेवजी प्रौढ़ियाँ में नागनाथ महादेव को कीर्तन सूना रहे थे। समीप ही अभिषेक करनेवाले ब्राह्मणों को नामदेवजी के स्वर से अपने मंत्र-पाठों में बाधा महसूस हुई तो उन्होंने बड़े तिरस्कार से डाँटते हुए उन्हें वहाँ से हटा दिया
और बड़बड़ाते हुए बोले-"ये नीची जाति के लोग भी अपने आपको भक्त समझने लगे हैं, जैसे भगवान् इन्हीं के सन्मुख प्रकट होंगे।"
__ नम्र संत नामदेव ने कुछ भी नहीं कहा और अपने पूर्ववत् प्रफुल्ल भाव से प्रासन उठाया और मंदिर के पीछे जाकर बैठ गए और कीर्तन करने लगे। किन्तु भगवान् विश्वनाथ को संभवत: क्रोध, और अपने आप को उच्च मानने वाले उन ब्राह्मणों के अहंकार-युक्त मंत्रों का उच्चारण अच्छा नहीं लगा, अपितु उन्होंने नामदेव के हृदय से निकलते हुए अनुरागपूर्ण कीर्तन को सुनना पसंद किया, अत: ब्राह्मण मंत्र-पाठ करते ही रहे, किन्तु मंदिर का गर्भ-गृह घूम गया तथा द्वार नामदेवजी की ओर हो गया । चमत्कृत हुए मंत्र-पाठी ब्राह्मण अपना सा मुंह लेकर रह गए। आज भी वहाँ पर नन्दीश्वर मंदिर के पीछे की ओर स्थित हैं।
जो भी हो, कहने का अभिप्राय यही है कि बाना बदल लेनेमात्र से ही व्यक्ति साधुत्व को प्राप्त नहीं कर लेता और अपने इच्छित को प्राप्त नहीं कर सकता । किसी ने कहा है
बाना बदले सौ सौ बार,
बदले बान तो बेड़ा पार । सत्य ही कहा गया है कि सैकड़ों बार बाने बदल लेने से कोई लाभ नहीं होगा, लाभ तभी होगा जब कि बान बदल जाएँगी, यानी आदतें बदल जाएँगी, ढंग बदल जाएगा और की जाने वाली क्रियाओं से दिखावा हट जाएगा। सच्चे संत प्रतिष्ठा और कीति की कामना नहीं करते, प्राडंबर नहीं चाहते तथा भीड़-भाड़ से दूर भागते हैं। वे जन-शून्य स्थानों पर निविघ्न रूप से साधना करते हैं । भर्तृहरि ने कहा है:
धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतामानन्दाथ जलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमकेशयाः ।
Sp.• जो श्रमण समा
समाहिकामे समणे तवस्सी - जो श्रमण समाधि की कामना करता है, वही तपस्वी
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