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________________ •अर्थ जा च न . ततीय खण्ड 21.24.254._क अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ॥ अर्थात्-वे सन्त धन्य हैं, जो पर्वतों की गुफ़ानों में रहते हैं और परमात्मा की अपूर्व तेजोमय ज्योति का ध्यान करते हैं और जिनके भक्ति-पूरित अानन्दाश्रुओं का उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयतापूर्वक पान करते हैं। किन्तु हमारा जीवन तो मनोरथों के काल्पनिक महलों की बावड़ी के किनारे क्रीड़ा-स्थानों में विभिन्न प्रकार की लीलाएँ करते हुए ही निरर्थक व्यतीत हो जाता है। दूसरे शब्दों में शेखचिल्ली के समान खयाली पुलाव पकाते रहने पर भी अंत में देखते हैं तो कुछ भी हाथ नहीं आता । सच्चे संत तो बिरले ही होते हैं। ___ कहने का प्राशय यही है कि पंथ पर चलने से उसकी पहचान होती है तथा संत के संपर्क से उनके विषय में सच्ची जानकारी प्राप्त होती है। (५) संत और पंथ चलते रहें तो भय नहीं रहता आपको इस बात पर कुछ आश्चर्य होगा कि सदा चलते रहना कैसा ? किन्तु आश्चर्य की बात नहीं है, पंथ के चलते रहने से अभिप्राय स्वयं उसके चलने से नहीं वरन् उस पर पथिकों के चलते रहने यानी आवागमन बने रहने से है। जिस मार्ग पर लोगों का आवागमन बना रहता है, वहाँ प्रायः उचक्कों या चोर-डाकुओं का भय नहीं रहता। निर्जन मार्ग पर इक्के-दुक्के शरीफ़ व्यक्ति लट लिये जाते हैं और अनेकों बार तो उन्हें जान से भी हाथ धोना पड़ता है । पहाड़ी-पगडंडियों पर और जनहीन पथों पर आज के युग में खतरा सिर पर मंडराता ही रहता है। तीर्थ-स्थानों पर जाती हई बसों के यात्रियों के लट लिये जाने की वारदातें भी हम प्राय: सुनते हैं, क्योंकि ऐसे स्थान अधिकतर बस्तियों से दूर पर्वतों पर स्थित हैं । इसीलिये कहा गया है कि पंथ चलता रहे तो भय नहीं रहता। अब आती है संत की बात । वह भी चलता रहे तो ठीक रहता है। प्राशय यह है कि वह ग्रामानुग्राम या नगर-नगर में विचरण करता रहे। इस विषय को गिरिधर कवि ने अपनी सरल भाषा में स्पष्ट किया है : बहता पानी निर्मला, बन्धा गंदा होय, त्यों साधू रमता भला, दाग न लागे कोय । दाग न लागे कोय जगत से रहे अलहदा, राग-द्वेष-युत प्रेत न चित को करे विच्छदा। कह गिरिधर कविराय, शीत उष्णादिक सहता, होय न कहं आसक्त यथा गंगाजल बहता ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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