SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 754
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजस्थानी साहित्य को जैन संत कवियों की देन / २०९ स्थानकवासी परम्परा बाईस सम्प्रदाय के नाम से भी प्रसिद्ध है। इस परम्परा में भूधरजी, जयमल्लजी, रघुनाथजी, रतनचन्द्रजी, जवाहरलालजी, चौथमलजी, आदि प्रभावशाली प्राचार्य और संत हुए हैं। श्वेताम्बर तेरापन्थ सम्प्रदाय के मूल संस्थापक प्राचार्य भिक्ष हैं। यह पंथ सैद्धान्तिक मतभेद के कारण संवत् १८१७ में स्थानकवासी परम्परा से अलग हुआ। इस पंथ के चौथे प्राचार्यजी श्री जयाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हैं, राजस्थानी के महान साहित्यकार थे। उन्होंने तेरापंथ के लिए कुछ मर्यादायें निश्चित कर मर्यादा-महोत्सव का सूत्रपात किया। इस पंथ के वर्तमान नवम प्राचार्य श्री तुलसीगणी हैं, जिन्होंने अणुव्रत प्रांदोलन के माध्यम से नैतिक जागरण की दिशा में विशेष पहल की है और जो राजस्थानी भाषा के सरस कवि हैं। राजस्थान में जैनधर्म के विकास और प्रसार में इन सभी जैनमतों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है। जैनधर्म के विभिन्न प्राचार्यों, सन्तों और श्रावकों का जन-साधारण के साथ ही नहीं वरन् यहाँ के राजा और महाराजामों के साथ भी घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। प्रभावशाली जैन श्रावक यहाँ राज-मन्त्री, सेनापति, सलाहकार और किलेदार जैसे विशिष्ट उच्चपदों पर रहे हैं। उदयपुर क्षेत्र के रामदेव, सहणा, कर्माशाह, भामाशाह क्रमशः महाराणा लाखा, कुम्भा, सांगा और प्रताप के राज-मन्त्री थे। कुंभलगढ़ के किलेदार प्रासाशाह ने बालक राजकुमार उदयसिंह का गुप्त रूप से पालन-पोषण कर अपने अदम्य साहस और स्वामीभक्ति का परिचय दिया था, बीकानेर के मन्त्रियों में वत्सराज, कर्मचन्द बच्छावत, वरसिंह, संग्रामसिंह, आदि की सेवायें विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। बीकानेर के महाराजा रायसिंह करणसिंह, सुरतसिंह ने क्रमश: जैनाचार्य जिनचन्द्र सूरि, धर्मवर्द्धन, व ज्ञानसार को बड़ा सम्मान दिया। जोधपुर राज्य के मन्त्रियों में मेहता रायचन्द्र, वर्धमान आसकरण, मूणोत नेणसी और इन्द्रराज सिंघवी का विशेष महत्त्व है। जयपुर के जैन दीवानों की लम्बी परम्परा रही है। इनमें मुख्य हैं-मोहनदास, संघी हुकुमचन्द, विमलदास छाबड़ा, रामचन्द्र छाबड़ा, कृपाराम पण्ड्या । अजमेर का धनराज सिंघवी भी महान योद्धा था। इन सभी वीर मन्त्रियों ने न केवल शासनव्यवस्था की सुदढ़ता में योग दिया वरन् राजस्थानी साहित्य और कला के विकास व उन्नयन के लिए अनुकूल अवसर भी प्रदान किया। जैन सन्तों के साहित्य का धरातल जैन सन्तों की प्रात्मोत्थान और राष्ट्रोत्थान में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। उनका समग्र जीवन अहिंसा, संयम, तप, त्याग और लोककल्याण के लिये समर्पित रहा है । सांसारिक मोह-माया और घर-गृहस्थी के प्रपंच से छूट कर ये जब श्रमण दीक्षा अंगीकार करते हैं तब नितान्त अपरिग्रही बन जाते हैं । न इनका अपना ठहरने का कोई निश्चित स्थान होता है न जीवनयापन के लिए ये कोई संग्रह करते हैं। वर्षाऋतु के चार महीनों के अतिरिक्त ये कहीं स्थायी रूप से ठहरते नहीं। वर्ष के शेष आठ महीनों में ग्रामानुग्राम पदयात्रा करते हुए, जीवन को पवित्र और सदाचारयुक्त बनाने की प्रेरणा और देशना देना ही इनका मुख्य लक्ष्य रहता है। अपना जीवन ये सद्गृहस्थों से भिक्षा लाकर चलाते हैं। इनकी भिक्षावृत्ति को । मधुकरीवृत्ति या गोचरी कहा गया है। ये अपने पास एक कौड़ी तक नहीं रखते और वस्त्र, धम्मो दीवो पात्र, शास्त्र आदि मिलाकर इतनी ही सामग्री रखते हैं कि पद-यात्रा में ये स्वयं उठा सकें। संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy