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तृतीय खण्ड
११. हम जीवनकोष के दुर्लभ और दिव्य रत्नों की पहचान करें और इनमें से प्रत्येक को
समान मूल्यवान् सिद्ध करते हुए आत्मकल्याण के मार्ग पर सफलतापूर्वक
अग्रसर हों। १२. सशिक्षा अथवा सद्विद्या वह साधन है जिससे शरीर, मन एवं प्रात्मा, अथवा जड़
और चेतन का ज्ञान होता है। १३. उत्तम संस्कार चाहे वह छोटा सा भी क्यों न हो, एक दिन उत्तम फल का कारण
होता है। १४. हीनता के मनोभावों से मनुष्य की असीम क्षमताएँ दब जाती हैं। १५. आत्मोन्नति की आकांक्षा रखने वाले व्यक्ति के मार्ग में बाधाओं का पाना स्वाभा
विक है। उत्थान का पथ हास-परिहास का नहीं, बलिदान व उत्सर्ग का होता है। १६. मनुष्य की प्रगति आत्मिक गुणों की वृद्धि करने में है। १७. भोजन का वास्तविक उद्देश्य है, शरीर और साथ ही मन को सबल बनाना । मन
की सफलता से तात्पर्य है-उसे शुद्ध और दोषरहित रखना। १८. भोजन में शुद्धता, पवित्रता, स्वच्छता तथा मुख्य रूप से नियमितता का ध्यान
रखना आवश्यक है। १९. धर्म की शक्ति ही जीवन की शक्ति है, धर्म की दृष्टि ही जीवन की दृष्टि है। २०. इस दुर्लभ मानव-जीवन में यदि कुछ सत्य है, साध्य है, नित्य है और मंगलमय है
तो वह धर्म ही है। २१. सत्य की प्राज्ञा में खड़ा विवेकी पुरुष मृत्यु को भी जीत लेता है । २२. क्रोध लवणसागर है और प्रेम क्षीरसागर है। २३. क्रोधी के प्रति क्रोध करना क्रोधरूपी राक्षस का बल बढ़ाना है। २४. शान्ति के साथ क्रान्ति भी हो । सौम्यता और शीतलता के साथ तेजस्विता और
प्रतापशालिता भी हो। २५. सामाजिक विषमता को दूर करने पर ही समाज और देश खुशहाल रह सकते हैं। अन्तर्यात्रा १. जीवन के रहस्य को जानने, उसके लक्ष्य को पहिचानने तथा इस दुर्लभ एवं अमूल्य
मानव-जीवन को सार्थक करके सदा के लिये भव-बंधन से मुक्त होने के लिये प्रात्मा को जानना आवश्यक है।
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