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________________ द्वितीय खण्ड / १९८ "दर असल बात यह है दादा, कि मेरे सर पर टोपी जालीदार, शरीर पर कुर्ता बंगाली और टांगों पर पायजामा भोपाली होने के कारण कहीं मैं वहाँ विद्यमान समस्त अपरिचित दृष्टियों में उपहास का पात्र न बन जाऊँ । यह सोच कर ही एक पग घर-द्वार के बाहर और एक पग घर-द्वार के भीतर रह गया ।" ___ "हर स्थान पर हर समय, हर समुदाय में, प्रत्येक विद्वान से उसके सद्विचारों का लाभ उठाने के लिये किसी की अनुमति की आवश्यकता नहीं होती है, न अपनी दीन-हीनता पर विचार करना चाहिये न वेश-भूषा पर ।" श्रीमालजी गम्भीर हो उठे। “निकट भविष्य में आपको वहाँ चलना है और एक महान् त्यागिनी, तपस्विनी साध्वी के सुदर्शन को तैयार रहना है।" "तो फिर सुनिये दादा ! अाम चौराहे या सार्वजनिक मंच पर यदि किसी भी प्रकार का आयोजन-प्रयोजन होता है तो निःसंकोच किसी भी वर्ग विशेष का, किसी भी धर्म का अनुयायी, अमीर हो या फ़कीर, वह श्रोता या दर्शक के रूप में खड़ा रह सकता है । किन्तु किसी भी धर्म के पवित्र स्थल पर जाने के और बैठने के नियम विशेष होते हैं, और मैं ठहरा फक्कड़राम । मैं क्या जानूं नियम ? मैं चलता कहीं हूँ, पैर उठते कहीं हैं। मैं नरक में बैठता हूँ, विचार स्वर्ग की सैर करते हैं । कान सुनते पूरब की हैं, और आँखें भटकती पश्चिम में हैं। क्या कहूँ कि कितनी चिन्ताएँ कितने रोग पाल रखे हैं मैंने ! ....."हाँ....."पाप मुझे अपने साथ ले चलें तो मैं इसी समय चलने को तैयार हूँ।" "उनके प्रवचन प्रतिदिन प्रातः ९ बजे से प्रारम्भ होते हैं। कल प्रातः ९ बजे के लगभग मैं स्वयं आपके निवासस्थान पर आपको लेने आ रहा हूँ। आप मेरी प्रतीक्षा करेंगे और कहीं जाएंगे नहीं ।.....श्रीमालजी ने आगे कहा-खुर्शीदजी ! मैंने आपकी उनसे बहुत प्रशंसा की है और वह भी आपसे मिलने को बहुत उत्सुक श्रीमालजी के उक्त कथन पर मैं अवाक रह गया । मुझे मेरी सासें अपने कण्ठ में उलझती सी प्रतीत हुईं। मैं अपलक उन्हें निहारने लगा। कहाँ मैं एक अनाड़ी कलमकार और कहाँ अर्चनारूपी अवतार ! कहाँ मैं समुद्र-तट पर हिचकोले खाता तिनके के समान और कहाँ अनुभवों का असीमित सिन्धु महान् ! कहाँ मैं जडमति, मतिहीन, कहाँ वह मतिमान ? भारत देश की एक पूजनीय, सम्माननीय, माननीय, प्रातःस्मरणीय, जैनविभूति अर्चनीय अर्चनाजी मुझसे मिलने को उत्सुक हैं। असम्भव-सर्वथा असम्भव ! अविश्वसनीय ! मुझ जैसे गंवार-दुनियादार अनुभवहीन, साधनहीन, अर्ध विक्षिप्त, नश्वर-इच्छामों में लिप्त साधारण व्यक्ति की प्रशंसा में रामचन्द्रजी श्रीमाल ने किन शब्दों या वाक्यों का......"उपयोग किया होगा, जिनसे प्रभावित होकर सांसारिक बन्धनों से विमुक्त, माया-मोह से विमुख तपस्विनी उमरावकुंवरजी अर्चना महाराज ने मुझे बुलाया है ? मैं सोचने लगा--पिता के समान मुझ पर स्नेह रखने वाले, अनाथ के मस्तक पर वरदहस्त रखने वाले, मेरे हितैषी, मेरे शुभचिन्तक"""श्रीमालजी भावुकतावश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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