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________________ 'अर्चना' की अर्चना | १९९ मुझ साधारणजन के विषय में कुछ तो भी अतिश्योक्तिपूर्ण बोल गये होंगे।....... चलो....."कल सारा भेद खुल जाएगा, दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो जाएगा। भरम टूट जाएगा कि मैं रसातल में समाया हुअा एक अदृश्य कण के अतिरिक्त कुछ भी नहीं। "क्या सोचने लगे?" मैं चौंक पड़ा । विचारों की शृखला टूट गई । “कुछ नहीं दादा, मैं चलूंगा। कल प्रातः ६ बजे घर रह कर ही मैं आपकी प्रतीक्षा करूंगा।" ___ठीक ९-१५ पर हम दोनों नमकमंडी स्थित जैन-स्थानक धर्मशाला जा पहुँचे । अर्चनाजी का प्रवचन प्रारम्भ हो चुका था । वह उच्च आसन पर विराजमान थीं, अपनी शिष्याओं के मध्य, उपस्थित जन-समुदाय को सम्बोधित कर रही थीं। धर्मशाला के मध्य विशाल सभा कक्ष में धार्मिक प्रवृत्ति के जैन मतावलम्बी तन्मय उनकी अमृत-वाणी का रसपान कर रहे थे। श्रीमालजी ने करबद्ध हो उन्हें अभिवादन किया और मैंने भी उनका अनुसरण किया। श्रीमालजी के निकट ही अन्तिम पंक्ति में बैठते हुए मैंने एक सरसरी दृष्टि चारों ओर दौड़ाई। मुझे आश्चर्य हुआ कि उज्जैन में जैनधर्म के अनुयायियों के मान से उपस्थिति अधिक नहीं थी। त्याग-अहिंसा का बहता हुआ दरिया स्वयं अवन्तिका नगरी तक पाकर ठहरा हुआ था और तृषित जन सांसारिक माया-जल से अपनी पिपासा शान्त करने हेतु यहाँ-वहाँ भटक रहे थे । मैंने अपने मन-मस्तिष्क को बाह्य वातावरण से खींच कर प्रवचन पर केन्द्रित किया । अाँखें मूदे, गर्दन झुकाए लगभग एक घंटे तक अपने कानों से सुधा-रस पीता रहा । मन का मैल धोता रहा। भाव-विभोर हो रोता रहा । मेरी आत्मा माँ सरस्वती के पद-पंकज की चेरी है ना। बड़ी भावुक है, अन्तस्थल में उतरने वाले मधुर शब्दों के कोमल बाण प्राय: मुझे रुला देते हैं। बरबस ही आंखों से आँसू बहने लगते हैं । कण्ठ रुध जाता है, शरीर कम्पित हो उठता है और हृदय के हरे घावों में मीठी-मीठी पीर जागने लगती है। प्रवचन का विषय था-जैनधर्म क्या कहता है ? मेरे मन से बार-बार चीख-चीख कर कोई कहने लगा-जैनधर्म वही कहता है, जो मैं कहता हूँ । त्याग, अहिंसा, सत्य, सहयोग, सहानुभूति, शान्ति, दया, प्रेम और श्रद्धा ही धर्म की मूल हैं। संसार नश्वर है, अनश्वर ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है। मुझे लगा-मानो मेरे अन्तर की ध्वनि ही, किसी पर्वतीय वादी से टकरा कर प्रतिध्वनित हो रही है। अजेय-वाणी में अर्चना-वाणी और अर्चना-वाणी में अजेय-वाणी समा गई है। प्रश्न यही है कि वर्तमान युग को क्या हो गया है ? मानव-मानव के रक्त का प्यासा क्यों है ? संसार बारूद के ढेर पर क्यों बैठा है ? हम प्राण दे नहीं सकते तो प्राण लेने का अधिकार कहाँ से मिल गया ? किसने हमें यह अधिकार दिया ? जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only wallpinelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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