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________________ Jain Educat international द्वितीय खण्ड / २०० प्राणी ने जन्म लिया है, उसकी मृत्यु तो निश्चित है ही । जीवन देने और लेने वाली एक अदृश्य शक्ति है, जिसे हम प्रादिकाल से महसूस कर रहे हैं । जो कभी न कभी अपनी मौत स्वयं मरेगा, हम उसे मारने वाले कौन ? सर्वनाश की लीला हम क्यों रचाएँ ? मैं अनायास ही गर्दन उठाई। सर्वप्रथम अग्रिम पंक्ति में अर्धनग्नावस्था में कुछ मानव-मूर्तिमाएँ स्तब्ध थीं । मेरे आसपास और पीछे भी कुछ प्रौढ़ कुछ युवा प्राणी मूल्यवान वस्त्रों में लिपटे यदा कदा खांस खंखार रहे थे । I मेरे कानों में व्यंग-बाण मारता हुआ एक पवन झकोरा प्राकर निकल गयामनुष्य नग्नावस्था में आया है और नग्नावस्था में ही अन्तिम यात्रा पर जाएगा । नजीर की यह पंक्ति मेरे होठों से फिसल कर हवा में विलीन हो गई - 'सब ठाठ पड़ा रह जाएगा जब लाद चलेगा बनजारा !' भगवान् महावीर का अनुयायी यदि वैभवशाली है, यदि उसका शरीर सोने-चाँदी के भार से झुका है, यदि वह नोटों के गद्दे पर तिजोरी के तकिये से टेक लगाए बैठा है । यदि वह भोग-विलास में लिप्त है, यदि वह व्यापारी अपने ग्राहक से एक का चार गुना अनुचित लाभ उठाता है, यदि उसके विचारों में खोट है, यदि वह निर्धन, विवश और संकटग्रस्त जन साधारण का रक्त जोंक की भांति चूसता है, तो क्या वह सच्चा जैनी है ? जैन शब्द जिन से बना है। जिन का अर्थ है इन्द्री । जिसने अपनी इन्द्रियों पर विजयश्री प्राप्त की है, वही जैनी है । वही जैनधर्म का महान् पथिक है । वही महावीर है जिसने माया-मोह से साहसपूर्ण संघर्ष किया है, जिसने क्षणिक आनन्ददायिनी इच्छाओं को दृढ निश्चय और सम्बल से कुचल दिया हो । जिसने हिंसा परमधर्म की कथनी-करनी का अन्तर समझा हो । हिन्दू या मुसलमान के घर जन्मा नवजात शिशु किसी भी धर्म का अनुयायी नहीं होता । यह तो उसके भविष्य और आचरण पर निर्भर है कि वह क्या बनेगा ? फिर विचारों की प्रबल धारा में मुझे खींच कर किनारे पर ले आया । के संचालनकर्ता की वाणी मेरे कानों भाई भी यहाँ उपस्थित हैं। मैं उनसे प्रकट करें । से तीव्रगति से बहते हुए अकस्मात ही कोई मेरा विचार स्वप्न भग्न हो गया । कार्यक्रम टकराई - हर्ष का विषय है कि खुर्शीद अनुरोध करूँगा कि वे भी अपने विचार मन्थरगति से धड़कता मेरा मन इतनी तीव्रगति से स्पन्दित हो उठा मानो मुँह के रास्ते या वक्षस्थल चीर कर बाहर आ जाएगा । इस अनायास श्राक्रमण को झेलने की क्षमता में कहाँ से अर्जित कर पाता ? इस तैयारी से मैं प्राया नहीं था । मैं तो श्रोता के रूप में उपस्थित हुआ था । फिर पता नहीं, क्या बोला मैं ? किन्तु जो भी बोला - कम शब्दों में बोला, सीमित बोला, नपा-तुला बोला, कम समय में बोला, जो भी बोला, उसका सार यही था - मैं माँ सरस्वती का मूक साधक हूँ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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