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चतुर्थखण्ड / २९२ न दुःख कष्टों से पलायन की परम्परा प्रवर्तित की गई है। प्रत्युत उम्र से उम्र कष्ट के सामने अडिग अविचल बन कर खड़े रहने को एक ऐसी एकाग्रता, सहिष्णुता की विशद रूप से विश्लेषणा की गई है, जिसमें कष्ट दुःख स्वयं ही हार थक कर अध्यात्म-साधक का पिण्ड छोड़कर भाग जाएँ । वास्तविकता यह है कि कायोत्सर्ग की साधना से मोक्षार्थी लाधक के जीवन में स्वर्ण सुगन्ध जैसा संयोग जुड़ जाता है।
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