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श्री "अर्चनाजी" म.सा. के उत्क्रान्त चरण जीवन की दुर्गम, दुर्वह घाटियों में अनवरत गतिशील रहते हए कंटकाकीर्ण पथ को साधना द्वारा सुगम, समुदित, सुरभित बनाते जा रहे हैं, जो भारतीय संस्कृति के उन्नयन में त्याग तपोमयी सन्नारियों के अब तक रहे गौरवपूर्ण योगदान के निश्चय ही
संस्मारक हैं।
अर्चना-अभिनन्दन-पच्चीसी - कविरत्न श्रीचन्दनमुनिजी म. सा. पंजाबी
विश्वविदित उपकार जिन्हों के, दया धर्म के मंगल धाम । महासती उमरावकुंवरजी, मधुर "अर्चना"सा उपनाम ।।१।। मांगिलाल तातेड़ पिताजी, अनुपा देवी माता थी। जैन धर्म की ज्ञाता ध्याता, बहुत-बहुत विख्याता थी ।।३।। भाग्यवती अति निर्मल मति जो, ऐसी शिष्या पाई थी। गुरुणी श्रीसरदारकुंवरजी, फूली नहीं समाई थी।।५।। हिन्दी, प्राकृत, संस्कृत, इंग्लिश, विद्याएं यों पढ़ीं अनेक । लोग चकित थे बुद्धि आपकी, अद्भुत और विलक्षण देख ॥७॥ जैनधर्म का मर्म अहिंसा, अनेकान्त में छुपा परम । भ्रात ! भगिनियों! आत्मशुद्धि ही लक्ष्य बनायो अपना चरम ।।९।। दूर द्वेष से कलह क्लेश से, भागो-भागो-भागो जी ! कहती रहती वैरभाव को, त्यागो-त्यागो-त्यागो जी ।।११।।
उन्नीसौ उन्नासी भादव, जन्म आपने पाया था। ग्राम "दादिया" क्षेत्र किशनगढ, फूला नहीं समाया था ।।२।। बचपन में वैराग्यभाव की, जाग गई चिनगारी थी। उन्नीसौ चौरानव अगहन, "नोखा" दीक्षा धारी थी ।।४।। युवाचार्य श्रीमधुकर मुनिवरजी से पाया ज्ञान महान् । ध्यान-योग की अमर साधिका, कवि, वक्ता, लेखक गुण-खान ।।६।। प्रागमज्ञाता, शिक्षादाता, अमृत जैसी वाणी से। पाप आप टकराव बतातीं, प्राणी का हर प्राणी से ।।८।। भोगवाद में स्वाद नहीं कुछ, जीवन-हीरा है बरबाद । तरने को भव-सागर कहतीं, त्यागवाद को रक्खो याद ॥१०॥ जैन-अजनो! भाई बहिनो ! सुनलो मेरा कहना साफ । बड़ा लोभ से क्षोभ नहीं है, और नहीं है कोई पाप ।।१२।।
अर्चनार्चन /६
आई घड़ी अभिनंदन की चरण कमल के वंदन की
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