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________________ Jain Education International चतुर्थखण्ड / १७२ 1 और उसी मस्ती में मुल्ला मौलवी, पंडित जैसी धर्मोन्मादी संस्थाओं पर वीसे व्यंग करके उनकी निस्सारता प्रकट की थी। इस प्रकार के एक मस्त विचारक ने कहा था किसी का राम काशी में, किसी का है मदीने में किसी का जन सम, जर में, किसी का खाने-पीने में कोई कहता गया में है, किसी का का योरोशलम में है । "पैमानन्य" राम अपना या तो हरजा है या सीने में है । वास्तविक रूप में मनुष्य स्वयं परमात्मास्वरूप है। स्वयं परमात्मास्वरूप है । उसका स्थान मनुष्य का हृदय है या वह सर्वव्यापी है। किन्तु जहाँ इस्लाम अपनी मान्यता पर इतना दृढ़ था कि जो ईश्वर (अल्लाह) को लाशरीक कहता था उसी में कई ऐसे शायर हुए कि जिन्होंने ईश्वर की दयालुता का वर्णन करते हुए उसको चाटुकारिता के समकक्ष माना । उदाहरणस्वरूप मौर तेरे करम के भरोसे पर हथ में या रख, गुनाह लाया हूं और बेहिसाब लाया हूं । गया शैतान मारा एक सिजदे के न करने से दोलख सही पे सर का झुकाना नहीं अच्छा और इसी कारण शायर ने सख्त मजाक करते हुए लिखा था: हुआ है चार सिजदों पर यह दावा जाहिदों तुमको। खुदा ने क्या तुम्हारे हाथ जन्नत बेच डाली है ? इस भूमिका के परिप्रेक्ष्य में यदि हम जैनदर्शन के तत्वज्ञान पर दृष्टिपात करते हैं तो यह स्पष्ट जाहिर है कि उपर्युक्त किसी भी रूप में ईश्वर की मान्यता यहाँ पर नहीं है। जहाँ तक सृष्टिकर्ता तथा कर्मफलप्रदाता का रूप है, जैनधर्म स्पष्ट रूप से इंकार करके बताता है कि यह सारा विश्व कार्य-कारण के आधार पर अनादि काल से चला था रहा है तथा अंतहीन है | ( Begningless & endless ) विश्व में कभी सर्वप्रलय नहीं हो सकती । जो सत् है वह कभी असत् नहीं हो सकता । यह पृथक् बात है कि द्रव्य के पर्याय में रूपान्तर होता रहता है। कहा गया है: नासतो विद्यते भाव, नाभावो जायते सत । केवल जैनधर्म ही नहीं वैदिक परम्परा में भी कई ग्रंथों में ईश्वर को विश्व का नियंता या कर्मफलप्रदाता नहीं मानते हुए "स्वभाव" के कारण ही इनका अस्तित्व माना है जैसा कि श्रीमद्भागवद् गीता में कहा गया : "न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः न कर्मफलसंयोग: स्वभावस्तु प्रवर्तते । नादतं कस्यचित्पापं न कस्य सुकृतं विभुः । अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ जैनदर्शन का विश्वास है कि प्राणी स्वयं अपने कर्म करने में स्वतंत्र है तथा भले-बुरे कर्मों के कारण वह पुण्य-पाप का बंध करता है। वास्तव में ईश्वर नाम की कोई शक्ति न For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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