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________________ जैनदर्शन में ईश्वर की अवधारणा / १७३ 1 तो न्यायदाता (जज) का कार्य करती है न उसकी दयालुता किसी को भले-बुरे कर्मों से क्षमा प्रदान कर सकती है, न किसी ईश्वर में यह शक्ति है कि वह उसके नाम-स्मरण या नाम जप से प्रसन्न होकर उसे क्षमा प्रदान कर सके तात्पर्य यह है कि जैनदर्शन की सृष्टि निर्माण तथा कर्मफल की मान्यता अत्यन्त तर्क पुरस्सर है और आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य की पुष्टि करती है कि समष्टि का निर्माण कार्य-कारण (Law of Causes & Effect ) के आधार पर ही हुआ है। वास्तव में जैन धर्म में ईश्वर के किसी अवतार धारण करके विश्व में अवतरित होने की मान्यता को स्थान नहीं है। वह ईश्वर का मानवीय रूप (Personalised Godhood ) स्वीकार नहीं करता । उसके निकट मौलिक रूप में विश्व का समस्त प्राणिजगत् शुद्ध-बुद्ध है। उसकी क्षमता है कि वह आत्मिक गुण या प्राध्यात्मिक या आधिदैविक ऐश्वर्य से महात्मा अथवा परमात्मा पद तक पहुँच सके। जैसा कि कहा गया है कि निश्चय नय की दृष्टि से प्रत्येक जीवात्मा में यह ( Potentiality ) है कि वह वास्तविक रूप से परमात्मत्व अपने में आरोपित कर सके। अधिक उपयुक्त यह है कि हम "ईश्वर" शब्द के स्थान पर "परमात्मा" शब्द का उपयोग करें। जीवात्मा अपनी प्रात्मिक उन्नति करते-करते महान् आत्मा हो सकती है और जब सारे घातिया कर्म (ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय, अन्तराय) क्षय करके शुद्ध बुद्ध हो जाती है तो उसे "कैवल्यप्राप्ति " हो जाती है और जब प्रपातिया ४ कर्म (नाम, गोत्र, आयुष्य वेदनीय) क्षय हो जाते हैं, तो वही सिद्ध हो जाता है और कृतकृत्य हो जाता है। सती मदालसा का एक वाक्य प्रसिद्ध है जो वह अपने गर्भस्थ शिशु या नवजात शिशु को अच्छे संस्कार डालने के लिये कहा करती थी शुद्धोऽसि, बुद्धोऽसि, निरंजनोऽसि । तथा अन्य दर्शनों में भी कहा गया है Jain Education International न मृत्युर्न शंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म न बन्धुर्न मित्र, गुरुनैव शिष्यः । चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् । न पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रं न तीर्थं न वेदा न यज्ञाः । अहं भोजनं नैव भोज्यं न भोक्ता चिदानन्दरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् । , जैन धर्म में प्रात्मिक ऐश्वर्य या ग्रात्मा की शुद्ध स्थिति के प्रकटीकरण के लिये जिन १४ गुणस्थानों का क्रम स्वीकार किया गया है वह अत्यन्त वैज्ञानिक विचारसरणी है। उससे जीवात्मा, जो यद्यपि कर्मफल से लिप्त है वह शनैः शनैः उन्नत अवस्था को प्राप्त करती हुई अपने शिवस्वरूप को प्राप्त कर सकती है। यही ईश्वरत्व है, परमात्मत्व है । तात्पर्य यह कि जैन दर्शन में उपरोक्त अर्थों में ईश्वर का स्थान नहीं है किन्तु ईश्वरत्व का स्थान अवश्य है और Personalised Godhood नहीं है अपितु प्रत्येक आत्मा निश्चय नय से शिवस्वरूप है और अपने राग-द्वेष से मुक्त होकर अपने शिवत्व को प्रकट कर सकती है। जीवात्मा में शिवत्व उसी प्रकार व्याप्त है जैसे: For Private & Personal Use Only धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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