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________________ जैनदर्शन में ईश्वर की अवधारणा /१७१ अस्तित्व में विश्वास नहीं करते थे उनके मत में भी समष्टि को नियमित करने वाली किसी शक्ति का अस्तित्व अवश्य था । चाहे उसको "दैवी शक्ति" (Spirit) के नाम से पहचाना जाये या किसी और नाम से। यह प्रश्न गौण था। वैदिक परम्परा के अतिरिक्त इस्लाम एकेश्वरवाद का हामी था। इस्लाम का पवित्र कलमा "ला इलाहा इल्लिल्लाह मुहम्मदरसूलिल्लिाह" है जिसका अर्थ यह है कि ईश्वर केवल एक है और हजरत मुहम्मद उसके रसूल हैं, पैगम्बर हैं, उसके संदेशवाहक हैं । इस्लाम में ईश्वर के अतिरिक्त किसी और शक्ति की मान्यता "शिरकत" कहलाती है। और इस मान्यता का जबरदस्त विरोध है। सूफी मत के सन्त ईश्वर तथा सांसारिक जीवों के मध्य "द्वैत" का एक पर्दा मानते हैं जहाँ वह पर्दा (प्रावरण) हटा कि सांसारिकजीव ब्रह्म में लीन हो जाता है। कहा गया है कि "महबूब मेरा मुझ में है, मुझको खबर नहीं ऐसा छिपा है पर्दे में, जो कि आता नजर नहीं। शौक है दीदार का, तो नजर पैदा कर ॥" इसके अतिरिक्त सूफी संत, मानव के अन्तरतम में ही ईश्वरीय प्रकाश (जलवा) का अस्तित्व मानते थे दिल के आईने में है तस्वीरे यार । जब जरा गरदन झुकाई, देख ली ॥ साथ ही ईश्वर को सर्वव्यापी मानते थे तथा वेदान्त की अद्वैत परम्परा के अनुसार अनलहक (अहं ब्रह्मास्मि) का नाद करते हुए ईश्वरीय प्रेम में मस्त रहते थे। जिधर देखता हूं उधर तू ही तू है और आदम को खुदा मत कहो, आदम खुदा नहीं। लेकिन खुदा के नूर से, आदम जुदा नहीं। एक प्रसिद्ध सूफी संत सरमद का वाकया बहुत प्रसिद्ध है जो अपनी ईश्वरीय प्रेम में मस्त जिन्दगी व्यतीत करता-करता दिल्ली पहुंचा। उस काल में दिल्ली के तख्त पर एक धर्मान्ध बादशाह औरंगजेब का शासन था। सरमद अपनी मस्ती में "अनलहक" की आवाज लगाता हुया घूम रहा था। बादशाह ने उसे कई बार चेतावनी दी कि वह इस तरीके से बाज पा जाए। बादशाह के निकट यह क्रुफ था किन्तु संत अपनी मस्ती में इतना तल्लीन था कि उसको इस बात पर ध्यान देने का समय ही नहीं था। अंततोगत्वा बादशाह ने संत को मृत्युदण्ड दिया। उस समय के उसके वाक्य, उसकी मस्ती, तल्लीनता का स्पष्ट दिग्दर्शन कराते हैं बजमें इश्क तो अम, मी कुशंद मोगा अस्त । तो नीज वस्सरे वांम, आंकि खुद तमाशा रास्त ॥ तुझे तेरे इश्क में मारा जा रहा है। जरा अटारी पर चढ़कर देख कैसा तमाशा हो रहा है । इसके अतिरिक्त निर्गुणी संतों में कबीर का स्थान सर्वोच्च है जिसने ईश्वरीय प्रेम में अपने को आपादमस्तक गर्क कर लिया था और उसी मस्ती में उसने "अनहदनाद" सुना था धम्मो दीवो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.012035
Book TitleUmravkunvarji Diksha Swarna Jayanti Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuprabhakumari
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1988
Total Pages1288
LanguageHindi, English
ClassificationSmruti_Granth & Articles
File Size30 MB
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